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६३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४ "शंका-पृथिवीकायिकनामकर्म किसी भी सूत्र में नहीं कहा गया है?
"समाधान-पृथिवीकायिक नाम का कर्म एकेन्द्रियजाति-नामक नामकर्म में अन्तर्भूत है।
"शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता।
"समाधान-सूत्र में ऐसा नहीं कहा गया है कि कर्म आठ ही हैं अथवा एक सौ अड़तालीस ही हैं, क्योंकि सूत्र में आठ या एक सौ अड़तालीस संख्या के अतिरिक्त अन्य संख्या का प्रतिषेध करने वाला 'एव' शब्द नहीं है।
"शंका-तो फिर कर्म कितने हैं?
"समाधान-लोक में घोड़ा, हाथी, वृक (भेड़िया), भ्रमर, शलभ, मत्कुण, उद्देहिका (दीमक), गोमी और इन्द्रगोप आदि रूप से जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही होते हैं।" ८६
इस युक्ति से स्पष्ट हो जाता है कि शरीर के योनि-लिंगादि-चिह्नित स्त्री-पुरुषनपुंसकरूप भेद भी कर्मों के फल हैं, अतः इन परस्पर भिन्न कर्मफलों के निमित्तभूत नामकर्मों का भी परस्पर भिन्न होना आवश्यक है। योनि-लिंगादिरूप कर्मफल अंगोपांगों के भेद हैं, अतः इनके निमित्तभूत नामकर्म भी अंगोपांगनामकर्म के ही भेद हैं। यतः वे स्त्री-पुरुष-नपुंसक-शरीर के अंगोपांगों की रचना के निमित्त होते हैं, अतः वे स्त्र्यंगोपांगनामकर्म, पुरुषांगोपांगनामकर्म एवं नपुंसकांगोपांगनामकर्म शब्दों से ही अभिधेय हैं।
श्वेताम्बर आगमों में भी इन्हें स्वीकार किया गया है। उनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, ये नोकषायरूप तीन भाववेद तो माने ही गये हैं, इनके अतिरिक्त स्त्री-नामगोत्रकर्म, पुरुष-नामगोत्रकर्म तथा नपुंसक-नामगोत्रकर्म भी माने गये हैं, जो अंगोपांगनामकर्म के ही भेद हैं। ज्ञातृधर्मकथाङ्ग में मल्लीकथा के प्रसंग में कहा गया है कि उनके उपान्त्य पूर्वभव के जीव महाबल ने मायाचार के कारण 'इत्थिणामगोयकम्म' (स्त्रीनामगोत्रकर्म) का बन्ध किया था-"तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थिणामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु।" ८७
८६. "पुणो केत्तियाणि कम्माणि होति? हय-गय-विय-फुल्लंधुव-सलहमक्कुणुद्देहि-गोहिंद
गोवादीणि जेत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलब्भंते कम्माणि वि तत्तियाणि चेव।" धवला/
ष.खं/ पु.३/ १, २, ८७ / पृ. ३३० । ८७. ज्ञाताधर्मकथांग / अध्ययन ८/ मल्ली / पृ.२१७ ।
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