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________________ अ०११/प्र.४ षट्खण्डागम/६३५ पुरुसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसित्थिसंढवो भावे।। णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा॥ २७१॥ अनुवाद-"पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नामक चारित्रमोहनीयकर्म की प्रकृतियों के उदय से पुरुषभाववेद, स्त्रीभाववेद और नपुंसकभाववेद का उदय होता है। तथा नामकर्म के उदय से पुरुषद्रव्यवेद, स्त्रीद्रव्यवेद और नपुंसकद्रव्यवेद की रचना होती है। ये दोनों वेद प्रायः समान होते हैं, किन्तु कहीं-कहीं विषम भी हो जाते इस प्रकार सभी दिगम्बराचार्यों ने वेदवैषम्य की आगमोक्तता का प्रतिपादन किया १०.१. पुरुषादिशरीररचना का हेतु पुरुषादि-अंगोपांग-नामकर्म ऊपर पूज्यपाद स्वामी एवं नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के वचन उद्धृत किये गये हैं, जिनमें कहा गया है कि भाववेद की उत्पत्ति चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होती है और योनि-मेहनादि द्रव्यवेद की रचना का निमित्त अंगोपांग-नामकर्म का उदय है। इससे सूचित होता है कि अंगोपांगनामकर्म में पुरुषांगोपांगनामकर्म, स्त्रीअंगोपांगनामकर्म तथा नपुंसकांगोपांगनामकर्म अन्तर्भूत हैं। यद्यपि शास्त्रों में इनका उल्लेख अलग से नहीं मिलता, तथापि 'कार्यभेदात् कारणभेदः' और 'जेत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलब्भंते कम्माणि वि तत्तियाणि' (लोक में जितने कर्मफल दिखाई देते हैं, उतने ही कर्म हैं-धवला/ष.खं/पु.३ /१,२,८७ /पृ.३३०)। इन नियमों के अनुसार उनका अस्तित्व सिद्ध होता है। इन नियमों से वीरसेन स्वामी ने पृथिवीकायिक-नामकर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है। पृथिवीकायिकजीव की परिभाषा बतलाते हुए वे (धवला/ष.खं/पु.३/१,२, ८७ / पृ.३३० पर) कहते हैं "यहाँ पर पृथिवी है काय अर्थात् शरीर जिनके, उन्हें पृथिवीकायजीव कहते हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि पृथिवीकाय का ऐसा अर्थ करने पर विग्रहगति में विद्यमान जीवों के अकायित्व का अर्थात् पृथिवीकायित्व के अभाव का प्रसंग आता "शंका-तो फिर पृथिवीकायिक का अर्थ क्या करना चाहिए? "समाधान-पृथिवीकायिकनामकर्म के उदय से युक्त जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं, इस प्रकार पृथिवीकायिक शब्द का अर्थ करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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