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६३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र.४ अनुवाद-"जिस प्रकार भावपुरुषवेद का उदय रहते हुए पुरुष क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए हैं, उसी प्रकार शेष वेदों (भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद) का उदय होने पर भी ध्यान में उपयुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं।"
पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि के निम्नलिखित वाक्यों में वेदवैषम्य का निरूपण किया है
"लिङ्गेन केन सिद्धिः? अवेदत्वेन, त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो, न द्रव्यतः। द्रव्यतः पुंल्लिङ्गेनैव।" (१०/९/पृ.३७४)।
अनुवाद-"सिद्धि (मुक्ति) किस लिंग से होती है? वेद के अभाव से होती है अथवा भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों (स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद) से होती है, द्रव्यवेद की अपेक्षा तीनों वेदों से नहीं होती, केवल पुल्लिंग से होती है।"
भट्ट अकलंकदेव तत्त्वार्थराजवार्तिक में वेदवैषम्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते
हैं
“यस्योदयात् स्त्रैणान् भावान् मार्दवास्फुटत्व-क्लैव्यमदनावेश-नेत्रविभ्रमास्फालन-सुखपुंस्कामनादीन् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः। तस्योद्भूतवृत्तित्वमितरयोः पुन्नपुंसकयोः सत्कर्म-द्रव्यावस्थानान्यग्भावः। ननु लोके प्रतीतं योनिपृथुस्तनादि स्त्रीवेदलिङ्गम्। न, तस्य नामकर्मोदयनिमित्तत्वात्। अतः पुंसोऽपि स्त्रीवेदोदयः। कदाचिद्या'षितोऽपि पुंवेदोदयोऽप्याभ्यन्तर-विशेषात्। शरीराकारस्तु नामकर्मनिर्वर्तितः।" (८/ ९/४/ पृ.५७४)।
अनुवाद-"जिसके उदय से जीव में कोमलता, अस्फुटता, क्लीबता, कामावेश, नेत्रविभ्रम, आस्फालन और पुरुषेच्छा आदि स्त्रीभावों की उत्पत्ति होती है, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जब स्त्रीवेद उदय में रहता है, तब पुरुषवेद और नपुंसकवेद सत्ता में रहते
हैं।
प्रश्न-"स्त्रीवेद के उदय से तो योनि, पृथुस्तन आदि लोकप्रसिद्ध लिंग (स्त्रीशरीरसूचक अंगों) की उत्पत्ति होती है? उत्तर-नहीं, उसकी उत्पत्ति तो नामकर्म (स्त्र्यंगोपांगनामकर्म) के उदय से होती है। इसलिए पुरुष में भी स्त्रीवेद का उदय हो सकता है। कदाचित् आभ्यन्तर कारण की विशेषता से स्त्री में भी पुरुषवेद का आविर्भाव संभव है (क्योंकि इसका सम्बन्ध चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से है)। शरीर का आकार तो नामकर्म के उदय से निष्पन्न होता है।"
कहीं-कहीं वेदों के विषम हो जाने की वास्तविकता का उद्घाटन आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार-जीवकाण्ड की अधोवर्णित गाथा में किया है
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