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________________ अ०११ / प्र०४ षट्खण्डागम / ६३३ हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप शरीर से स्त्री होते हुए भी उसके मनोभाव और हावभाव स्त्रीसदृश न होकर पुरुषसदृश होते हैं, वह स्त्री के ही साथ रमण करने की इच्छुक होती है। तथा कोई मनुष्य पुंवेद या स्त्रीवेद नामक नोकषाय का उदय होने पर भाव से पुरुषवेदी या स्त्रीवेदी होता है, किन्तु नपुंसकांगोपांग-नामकर्म के उदय से नपुंसकशरीरवाला हो जाता है। तब भाव से स्त्रीवेदी होने पर उसमें पुरुष के प्रति कामभाव उत्पन्न होता है और भाव-पुरुषवेदी होने पर स्त्री के प्रति। इस तरह द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री या नपुंसक, द्रव्य से स्त्री और भाव से पुरुष या नपुंसक तथा द्रव्य से नपुंसक और भाव से स्त्री या पुरुष इस गणनानुसार वेदवैषम्य के छह भेद होते हैं।८४ भाववेद कषाय होते हुए भी कषाय के समान अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तित नहीं होता, अपितु जन्म से लेकर मृत्यु तक स्थायी रहता है।८५ - वेदवैषम्य के उदाहरण हमें कभी-कभी लोकजीवन में दिखाई दे जाते हैं। कोई पुरुष हमें ऐसा मिल जाता है जिसका स्वर, जिसके हाव-भाव स्त्रियों के समान होते हैं, उसे स्त्री जैसा रहना या वेशधारण करना अच्छा लगता है, स्त्रियों के ही बीच में उठने-बैठने में उसे आनन्द आता है और पुरुषों को आकृष्ट कर उन्हें अपने साथ अप्राकृतिक कामसम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति देता है। इसे यौनमनोविज्ञान में homosexuality अर्थात् समलैंगिक मैथुन कहा गया है। ब्रिटेन, अमेरिका जैसे देशों में तो समलैंगिक विवाह भी होने लगे हैं और अब तो उन्हें कानूनी मान्यता भी मिल गयी है। अतः वेदवैषम्य एक दैहिक और मनोवैज्ञानिक सत्य है। प्रसिद्ध अमेरिकन मनश्चिकित्सक डॉ. राबर्ट जे. स्टॉलर एम० डी० ने उस पर 'SEX AND GENDER' नाम का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है, जिसमें वेदवैषम्य की यथार्थता पर प्रकाश डाला है। दीपा मेहता नाम की एक फिल्मनिर्मात्री ने इसी यथार्थ को प्रकाशित करने के लिए 'फायर' (FIRE) नाम की फिल्म का भी निर्माण किया था। तत्त्वार्थसूत्र में ब्रह्मचर्यव्रत के निरतिचारपालन के लिए अनङ्गक्रीडा का निषेध किया गया है, जिसमें समलैंगिक मैथुन का भी निषेध गर्भित है। वेदवैषम्य का उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्दकृत सिद्धभक्ति की निम्नलिखित गाथा में मिलता है पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा। सेसोदएण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते हु सिझंति॥ ६॥ ८४. जीवतत्त्वप्रदीपिका / गोम्मटसार-जीवकाण्ड / गा.२७१ । ८५. "पर्यायत्वात् कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदा, आजन्मनः आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात्।" धवला/ष.खं./ पु.१ / १, १, १०७ / पृ.३४८। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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