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________________ ६३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ १० षट्खण्डागम में यापनीय-अमान्य वेदवैषम्य की स्वीकृति वेदवैषम्य जैनदर्शन का विचित्र प्रतीत होनेवाला, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध विशिष्ट सिद्धान्त है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के आगमों में स्वीकृत है। पूज्यपाद स्वामी के 'के पुनस्ते वेदाः ---' इत्यादि सर्वार्थसिद्धिगत वचन पूर्व (शीर्षक ९) में उद्धृत किये गये हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि वेद या लिंग दो प्रकार का है : द्रव्यलिंग और भावलिंग। नामकर्म के उदय से जो योनि, मेहन (शिश्न) आदि की रचना होती है, उसे द्रव्यलिंग कहते हैं और नोकषाय के उदय से उत्पन्न स्त्रैण आदि भाव भावलिंग कहलाते हैं। ___ तात्पर्य यह कि स्त्री शरीर के सूचक योनि-स्तन आदि चिह्न, पुरुषशरीर के सूचक शिश्न-दाढ़ी-मूंछ आदि लक्षण और नपुंसकशरीर का सूचक योनि-शिश्न आदि चिन्हों का अभाव द्रव्यलिंग नाम से जाने जाते हैं। तथा पुरुष के प्रति कामभाव, स्त्री के प्रति कामभाव और दोनों के प्रति कामभाव का नाम भाववेद या भावलिंग है। देवों, नारकियों, भोगभूमिजों तथा कर्मभूमि के सभी सम्मूर्च्छनज संज्ञी-असंज्ञी तिर्यंचों और सम्मूर्छनज मनुष्यों में द्रव्यवेद और भाववेद समान ही होते हैं। अर्थात् जो द्रव्य या शरीर से स्त्री, पुरुष या नपुंसक है, वह भाव से भी स्त्री, पुरुष या नपुंसक ही होता है।८२ किन्तु कर्मभूमि के गर्भज संज्ञी-असंज्ञी तिर्यंचों ८३ और मनुष्यों में व्यवस्था कुछ भिन्न है। उनमें भी प्रायः दोनों वेद समान होते हैं, मात्र कुछ जीवों में विषम हो जाते हैं। जैसे किसी मनुष्य में स्त्रीवेद-नामक नोकषायवेदनीय कर्म के उदय से भाववेद तो स्त्री का उदित होता है, किन्तु पुरुषांगोपांगनामकर्म के उदय से उसके शरीर की रचना पुरुषाकार हो जाती है। इसके फलस्वरूप शरीर से पुरुष होते हुए भी उसकी मनोवृत्ति और प्रवृत्ति पुरुषसदृश न होकर स्त्रीसदृश होती है, उसमें पुरुष के ही साथ रमण करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार किसी मनुष्य में पुंवेद नामक नोकषायवेदनीय कर्म के उदय से भाववेद तो पुरुष का ही प्रकट होता है, किन्तु स्त्री-अंगोपांगनामकर्म के उदय से उसके शरीर की आकृति स्त्रीरूप ८२. सम्मूर्च्छन जन्मवाले सभी जीव केवल नपुंसक होते हैं (त.सू./२/५, मूलाचार / गा. ११३० 'एइंदिय-वियलिंदिय णारय---')। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तो सम्मूर्च्छनज ही होते हैं। सम्मूर्छिम तिर्यंच संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक भी होते हैं, किन्तु सम्मूर्छिम मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। (धवला / ष.खं/पु.४/१,५,१८/ पृ.३५०)। सभी सम्मूर्छिम जीवों में भाववेद और द्रव्यवेद दोनों होते हैं। ८३. षट्खण्डागम / पु.१/ १,१,१०७ पृ.३४८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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