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अ०११ / प्र० ४
षट्खण्डागम / ६३१
इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ मानती हैं कि प्रत्येक जीव पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इन तीन प्रकार के भाववेदों (कामभावों) को उत्पन्न करनेवाले अलग-अलग कर्मों की सत्ता होती है । किन्तु यापनीयमत इसे स्वीकार नहीं करता। वह मानता है कि स्त्री में भावस्त्रीवेद को ही उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है, पुरुष में भावपुरुष को ही उत्पन्न करनेवाला तथा नपुंसक में भावनपुंसकवेद को ही उत्पन्न करनेवाला ।
यहाँ प्रश्न उठता है कि तब लोक में ऐसे पुरुष क्यों दिखाई देते हैं, जो दूसरे पुरुषों के साथ स्त्रीवत् कामव्यवहार करते हैं अथवा कोई स्त्री अन्य स्त्री के साथ पुरुषवत् कामव्यवहार करती है? इसके उत्तर में यापनीय - आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन कहते हैं कि "यह मनुष्य के अपने ही भाववेद का विकृत परिणाम है। जैसे कोई कामोद्दीप्त पुरुष, कामोद्दीप्त स्त्री की प्राप्ति न होने पर पशु के साथ मैथुन करता है, तो यह उसके पुरुषवेद की ही विकृत अभिव्यक्ति है । यह नहीं कहा जा सकता है कि वह तिर्यग्वेद के उदय से ऐसा करता है । इसी प्रकार जो पुरुष, पुरुष के साथ स्त्रीवत् व्यवहार करता है वह अपने पुरुषवेद के ही विकृत परिणमन से ऐसा करता है और जो स्त्री, स्त्री के साथ कामाचरण करती है उसके पीछे भी उसके स्त्रीवेद की ही विकृत अभिव्यक्ति कारण है । " ८१ इस तरह शाकटायन यह नहीं मानते कि प्रत्येक मनुष्य में तीनों वेदों को उत्पन्न करनेवाले कर्मों की सत्ता होती है। इस पर श्री पद्मनाभ एस० जैनी टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि यह शाकटायन की व्यक्तिगत मान्यता है, क्योंकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के शास्त्रों में प्रत्येक जीव में ये तीनों भाववेद स्वीकार किये गये हैं
"Although the yāpanīya author Śākaṭāyana rejects the very idea of distinguishing libido along the lines of biological gender, arguing that sex desire, like anger or pride, is the same in man, woman, or hermaphrodite, this seems to be his personal view, for the scriptures of both the Svetambara and the Digambara sects accept the theory of three libidos.” ( Gender & Salvation, Introduction, p.12)
यापनीयमत की यह मान्यता षट्खण्डागम की मान्यता के विरुद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है।
८१. या पुंसि च प्रवृत्तिः पुंसि स्त्रीवत् स्त्रियाः स्त्रियां च स्यात् ।
सा
'स्वकवेदात्
तिर्यग्वदलाभे
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मत्तकामिन्याः॥ ४४॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण |
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