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________________ ६३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ अनुवाद-"वे तीन वेद कौन हैं? वे हैं : स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। इनके लिए 'वेद' शब्द का प्रयोग किस आधार पर किया गया है? वेदन किये जाने के कारण इन्हें वेद कहा गया है। अर्थात् वेद लिंग का वाचक है। वह दो प्रकार का है : द्रव्यलिंग और भावलिंग। नामकर्म के उदय से निष्पन्न योनि (स्त्रीजननांग), मेहन (पुरुषजननांग) आदि द्रव्यलिंग हैं। नोकषाय के उदय से प्रकट होने वाले (कामभाव) भावलिंग हैं।" वेदों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए सर्वार्थसिद्धिकार कहते हैं जिसके उदय से जीव स्त्रैण (स्त्री के) भावों को प्राप्त होता है, वह स्त्रीवेद कहलाता है, जिसके उदय से पुरुषत्व के भाव उत्पन्न होते हैं, उसका नाम पुरुषवेद है तथा जिसके उदय से नपुंसक की मनोवृत्ति आती है, उसे नपुंसकवेद कहते हैं "यदुदयात् स्त्रैणान्भावान् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः। यस्योदयात् पौंस्नान् भावानास्कन्दति स पुंवेदः। यदुदयान्नापुंसकान् भावानुपव्रजति स नपुंसकवेदः।" (स. सि. / ८/९)। भट्ट अकलंकदेव ने कोमलता, अस्फुटता, क्लीबता, कामावेश, नेत्रविभ्रम, आस्फालन और पुरुष की इच्छा आदि को स्त्रैणभाव कहा है "यस्योदयात् स्त्रैणान् भावान् मार्दवास्फुटत्व-क्लैव्य-मदनावेश-नेत्रविभ्रमास्फालन-सुखपुंस्कामनादीन् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः।" (त.रा.वा./८/९/४/पृ.५७४)। उन्होंने इन तीनों भाववेदों के लिए भावलिंग शब्द का प्रयोग करते हुए इन्हें आत्मपरिणाम कहा है और पुरुष की इच्छा (पुरुष के साथ रमण की इच्छा) को स्त्रीवेद, स्त्री की इच्छा को पुरुषवेद तथा दोनों की इच्छा (दोनों के साथ रमण की इच्छा) को नपुंसकवेद बतलाया है-"भावलिङ्गमात्मपरिणामः स्त्रीपुन्नपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः।" (त.रा. वा./२/ ६ / ३ पृ. १०९)। श्वेताम्बरसाहित्य में भी पच्चीस कषायों में उक्त तीनों भाववेद स्वीकार किये गये हैं। पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा विवेचित तत्त्वार्थसूत्र का निम्नलिखित सूत्र इसका प्रमाण है "दर्शनचारित्रमोहनीय-कषाय-नोकषाय-वेदनीयाख्यास्त्रि-द्वि-षोडश-नवभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरणसञ्चलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा-स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाः।" (त.सू./८/१०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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