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________________ अ०११ / प्र० ४ षट्खण्डागम / ६२९ " अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठित्ति को भावो ? ओवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो ।" (ष.खं./पु.५/१,७,२८) । अनुवाद- 'अनुदिश आदि से लेकर सर्वार्थसिद्धि - पर्यन्त विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि रूप कौन-सा भाव है? औपशमिक भी है, क्षायिक भी है और क्षायोपशमिक भी है । " " " अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च ( णत्थि ) अंतरं, णिरंतरं । " ( ष.खं. / पु.५/१,६,९९) । अनुवाद - " अनुदिश आदि से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का अन्तर कितने काल तक होता है? नानाजीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है।" ९ षट्खण्डागम का भाववेदत्रय यापनीयों को अमान्य षट्खण्डागम में चारित्रमोहनीय कर्म की पच्चीस प्रकृतियाँ बतलायी गई हैं, यथा "जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कसायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीयं चेव । " ( ष. खं / पु. ६ / १, ९-१, २२)। "जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोलसविहं, अणंताणुबंधिकोह- माण- मायालोहं, अपच्चक्खाणावरणीयकोह- माण- माया-लोहं पच्चक्खाणावरणीयकोह- माण- मायालोहं, कोहसंजलणं, माणसंजलणं, मायासंजलणं, लोहसंजलणं चेदि ।" (ष. खं/पु.६/ १, ९-१, २३) । "जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं पुरिसवेदं णवुंसयवेदं हस्स - रदि - अरदि-सोग-भय- दुगुंछा चेदि ।" (ष. खं. / पु. ६/१, ९-१,२४) । इनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीन भाववेद ( कषायरूपवेद) भी हैं। इन्हें भावलिङ्ग भी कहा गया है । यथा Jain Education International " के पुनस्ते वेदा: ? स्त्रीत्वं पुंस्त्वं नपुंसकत्वमिति । कथं तेषां सिद्धिः ? वेद्यत इति वेदः । लिङ्गमित्यर्थः । तद् द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं चेति । द्रव्यलिङ्गं योनिमेहनादि नामकर्मोदयनिर्वर्तितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम् ।" (स. सि./२/५२) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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