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________________ ६४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०४ कर्म सिद्धान्त की भाषा में प्रथम को द्रव्यस्त्री और द्वितीय को भावस्त्री संज्ञा दी गयी है। लोक में मनुष्य के लिये स्त्रीत्व या पुरुषत्ववाचक शब्द का प्रयोग उसके लिंग (योनि या शिश्न) के आधार पर किया जाता है। जैनसिद्धान्त में लिंग दो प्रकार के माने गये हैं: भावलिंग और द्रव्यलिंग । इन्हें क्रमशः भाववेद और द्रव्यवेद भी कहते हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक के शारीरिक चिह्न द्रव्यवेद या द्रव्यलिंग कहलाते हैं तथा उनके मन में रहनेवाला पुरुषविषयक कामभाव, स्त्रीविषयक कामभाव या उभयविषयक कामभाव क्रमशः भाववेद या भावलिंग शब्द से अभिहित होता है। वेद और लिंग दोनों शब्दों का समान अर्थ में प्रयोग किया गया है। ऐसा नहीं है कि मानसिक कामभाव को वेद और शारीरिक चिह्नों को लिंग कहा गया हो । १०२ इस प्रकार चूँकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में लिंग दो प्रकार के माने गये हैं, इसलिए दिगम्बर-जैन-कर्मसिद्धान्त में द्रव्यस्त्रीलिंग के आधार पर स्त्री के लिए लोकप्रसिद्ध मणुसिणी शब्द तो प्रयुक्त हुआ ही है, भावस्त्रीलिंग के आधार पर भी ऐसे पुरुष के लिए जो शरीर से तो पुरुष है, किन्तु भाव से स्त्रीलिंगी है, मणुसिणी शब्द का प्रयोग किया गया है । १०३ इसका एकमात्र कारण है कर्मसिद्धान्त में जीवविपाकी कर्म के उदयानुसार भी जीव को मनुष्यादि संज्ञाओं से अभिहित किये जाने का नियम होना । जैसे विग्रहगति में मनुष्यशरीर प्राप्त न होने पर भी केवल मनुष्यगतिनामकर्म के उदय से जीव को 'मनुष्य' कहा गया है । इसी प्रकार विग्रहगति में पुरुषशरीर की रचना न होने पर भी केवल भावपुंवेद के उदय से मनुष्यगति जीव को 'मनुष्य' (मनुष्यजातीय पुरुष ) कहा गया है और स्त्रीशरीर की उत्पत्ति न होने पर भी केवल भावस्त्रीवेद के उदय से 'मानुषी' या 'मणुसिणी' संज्ञा दी गयी है । यथा १०२. क - " एतदेव त्रिविधं लिङ्गं वेद उच्यते, यस्य कर्मण उदयात् पौंस्नं, स्त्रैणं, नपुंसकत्वं च भवति तल्लिङ्गम्।” सिद्धसेनगणी : तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २ / ६ / पृ.१४६ । ख–“स च नपुंसकवेदस्त्रिविधेऽपि वेदे भवति बृहत्कल्पसूत्र- लघुभाष्य-क्षेमकीर्तिवृत्ति / भाग ५ / उद्देश ४ / गाथा ५१४७ / पृ. १३६९ । " ग - " लिङ्गं द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं च । तत्र यद् द्रव्यलिङ्गं नामकर्मोदयापादितं तदिह नाधिकृतमात्मपरिणामप्रकरणात् । भावलिङ्गमात्मपरिणामः स्त्रीपुन्नपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदस्योदयाद् भवतीत्यौदयिकः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक २ / ६ / ३ / पृ.१०९ । १०३. “स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावस्त्री भवति ।" जीवतत्त्वप्रदीपिका वृत्ति / गोम्मटसार - जीवकाण्ड / गा. २७१ । Jain Education International --- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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