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________________ ६२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०४ इनमें श्वेताम्बरमान्य उपर्युक्त बीस कारणों में से १.सिद्धवत्सलता, २. गुरुवत्सलता, ३. स्थविरवत्सलता और ४. तपस्विवत्सलता इन चार कारणों का अभाव है। तथा 'अपूर्वज्ञानग्रहण' (नये-नये ज्ञान का ग्रहण) के स्थान में 'लब्धिसंवेगसम्पन्नता' का कथन है। यह संख्याभिन्नता षट्खण्डागम की यापनीयसाहित्य से भिन्नता का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। षट्खण्डागम में स्थविर (सवस्त्र) साधु अमान्य षट्खण्डागम में तीन प्रकार के स्थविर साधुओं के प्रति वत्सलता को भी तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक हेतुओं में स्वीकार नहीं किया गया है। जिनकल्पी (अचेल) साधुओं से भिन्न स्थविरकल्पी (सचेल) साधुओं की मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के विशिष्ट लक्षण हैं। स्थविर साधुओं का लक्षण बतलाते हुए डॉ. सागरमल जी लिखते हैं-"नवागन्तुक युवाओं और उन पार्खापत्य श्रमणों को, जो वस्त्रत्याग नहीं करना चाहते थे, स्थविरकल्प अर्थात् पार्श्वसंघ की व्यवस्था के अनुसार सामायिकचारित्र प्रदान किया जाता था। ये युवा हों, तो क्षुल्लक और वृद्ध हों, तो स्थविर कहलाते थे। जिनकी साधना को परख लिया जाता था और जो वस्त्रादिसम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर जिनकल्प का आचारण करते थे, उन्हें ही छेदोस्थापनीय-चारित्र प्रदान किया जाता था।" (जै. ध. या. स./ पृ.५८)। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में तो जिनकल्प को जम्बूस्वामी के बाद से ही विच्छिन्न घोषित कर दिया गया था, अतः उसमें तो आरंभ से ही सभी साधु सवस्त्र होते हैं, किन्तु यापनीयसम्प्रदाय के साधु सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों होते थे। अतः षट्खण्डागम में स्थविरसाधुओं की अस्वीकृति सवस्त्रमुक्ति की अस्वीकृति है, जिसमें स्त्रीमुक्ति की अस्वीकृति भी गर्भित है, क्योंकि स्त्रियों के लिए वस्त्रत्याग संभव नहीं है। यह षट्खण्डागम के यापनीयग्रन्थ न होकर दिगम्बरग्रन्थ होने का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। षट्खण्डागम में सोलह कल्प ( स्वर्ग ) मान्य यापनीयमान्य श्वेताम्बरग्रन्थों में केवल बारह कल्प (स्वर्ग) माने गये हैं, जैसा कि माननीय पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा विवेचित तत्त्वार्थसूत्र के निम्नलिखित सूत्र (४/२०) से ज्ञात होता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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