SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 681
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०११/प्र०४ घट्खण्डागम/६२७ "सौधर्मशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्र-सहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च।" इनमें दिगम्बरमान्य ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और शतार इन चार कल्पों का अभाव है, अतः कल्पों की संख्या केवल बारह है। किन्तु षट्खण्डागम में सोलह कल्प स्वीकार किये गये हैं। उनके नाम देवगति के अन्तर की पृच्छा करनेवाले निम्नलिखित सूत्रों में द्रष्टव्य हैं "भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-सोधम्मीसाण-कप्प-वासियदेवा देवगदिभंगो।" (ष.खं./पु.७/२,२,१४)। __ अनुवाद-"भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी व सौधर्म-ईशान-कल्पवासी देवों का अन्तर देवगति के ही समान है।" "सणक्कुमार-माहिंदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?" (ष.खं. / पु.७ / २, २, १५)। . अनुवाद-"सनत्कुमार और माहेन्द्र-कल्पवासी देवों का देवगति में अन्तर कितने काल तक होता है?" "बम्ह-बम्हुत्तर-लांतव-काविट्ठ-कप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?" (ष.खं./पु.७/२,२,१८)। ___अनुवाद-"ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर व लान्तव और कापिष्ठ-कल्पवासी देवों का देवगति में अन्तर कितने काल तक होता है?" "सुक्क-महासुक्क-सदार-सहस्सार-कप्पवासिय-देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?" (ष.खं./पु.७/२,२,२१)। अनुवाद-"शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवों का देवगति में अन्तर कितने काल तक होता है?" ___ "आणद-पाणद-आरण-अच्चुद-कप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि?" (ष.खं./पु.७/२,२,२४)। अनुवाद-"आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पवासी देवों का देवगति में अन्तर कितने काल तक रहता है?" षटखण्डागम (पुस्तक ७) के अल्पबहुत्वानुगम (महादण्डक) प्रकरण में क्रमांक १७ से लेकर २९ (पृ.५८०-५८२) तक के सूत्रों में भी सोलह कल्पों की अपेक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy