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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ६२५ दसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं। खणलव-तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य॥ अपुव्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थरयत्तं लहइ जीवो॥ अनुवाद-"१.अरिहन्त, २. सिद्ध, ३. प्रवचन (श्रुतज्ञान), ४. गुरु (धर्मोपदेशक), ५. स्थविर (साठ वर्ष की उम्रवाले जातिस्थविर, समवायांगादि के ज्ञाता श्रुतस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षावाले पर्यायस्थविर, ये तीन प्रकार के स्थविर साधु), ६. बहुश्रुत (दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता) और ७. तपस्वी, इन सातों के प्रति वात्सल्य भाव रखना अर्थात् उनका यथोचित सत्कार, सन्मान, गुणोत्कीर्तन आदि करना, ८. वारंवार ज्ञान का उपयोग करना, ९. दर्शन (सम्यक्त्व) की विशुद्धता, १०. ज्ञानादि की विनय करना, ११. छह आवश्यक करना, १२. मूलगुणों और उत्तरगुणों का निरतिचार पालन करना, १३. क्षणलव (एक लव प्रमाणकाल में भी संवेग, भावना एवं ध्यान करना), १४. तप करना, १५. त्याग करना (मुनियों को उचित दान देना), १६. वैयावृत्य करना, १७. समाधि (गुरु आदि को साता उपजाना), १८. नया-नया ज्ञान ग्रहण करना, १९. श्रुतभक्ति करना और २०. प्रवचन की प्रभावना करना, इन बीस कारणों से जीव तीर्थंकरनामकर्म का उपार्जन करता है।" . किन्तु षट्खण्डागम में तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं की संख्या केवल सोलह दी गई है "दंसणविसुज्झदाए , विणयसंपण्णदाए , सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए , आवासएसु अपरिहीणदाए , खणलवपडिबुज्झणदाए , लद्धिसंवेगसंपण्णदाए , जधाथामे तधा तवे, साहूणं पासुअपरिचागदाए , साहूणं समाहिसंधारणदाए , साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए, अरहंतभत्तीए , बहुसुदभत्तीए , पवयणभत्तीए , पवयणवच्छलदाए , पवयणप्पभावणदाए, अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए , इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।" (ष.खं./पु.८/३,४१)। अनुवाद-"दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं को प्रासुक-परित्यागता, साधुओं की समाधिसन्धारणता, साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर-नामगोत्रकर्म को बाँधते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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