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________________ ६२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र.४ बाँस की नोंक पर घूमते रहना प्राणातिपात का कारण होने से अव्रत या सावद्ययोग है। इनके होते हुए घाती कर्मों का क्षय मानना गुणस्थानसिद्धान्त से तनिक भी मेल नहीं खाता। जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, षट्खण्डागम में वर्णित गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार मनवचनकाय की प्रवृत्ति को रोककर जो पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान किया जाता है, उससे मोहनीय कर्म का क्षय होता है और उससे प्रकट हुए यथाख्यातचारित्र की अवस्था में जो एकत्ववितर्कावीचार-ध्यान किया जाता है, उससे शेष घाती कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान की अभिव्यक्ति होती है। तथा आयु के अन्त में किये योगनिरोध से जो अयोगि-केवलिगुणस्थान प्रकट होता है, उसमें सम्पादित 'व्युपरतक्रियानिवर्ति' नामक चतुर्थ शुक्लध्यान से शेष अघाती कर्मों का क्षय होकर सिद्धावस्था प्राप्त होती है। अतः षट्खण्डागम का गुणस्थान सिद्धान्त लड्डुओं को मसलते हुए हुए ढंढण ऋषि को, रस्सी पर चलते हुए नट को, उपाश्रय में बुहारी लगाती हुई वृद्धा को तथा कन्धे पर गुरु को बैठाकर यात्रा करते हुए शिष्य को केवलज्ञान की प्राप्ति माननेवाले श्वेताम्बरीय एवं यापनीय सिद्धान्त के एकदम विपरीत है। षट्खण्डागम का गुणस्थान-सिद्धान्त कूर्मापुत्र-नामक मुनि (कथा क्र.४.४.७) को चारित्रधारण (प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानों की प्राप्ति) के बिना ही केवलज्ञान प्राप्त होने की मान्यता के भी प्रतिकूल है। इस प्रकार षट्खण्डागम में प्रतिपादित गुणस्थानसिद्धान्त मिथ्यादृष्टि की मुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, लौकिक क्रियाओं एवं शुभाशुभ क्रियाओं में प्रवृत्त लोगों की मुक्ति, प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों की प्राप्ति के बिना केवलज्ञान की उपलब्धि तथा स्त्री को तीर्थंकरपद प्राप्त होने की मान्यताओं के विरुद्ध है। ये मान्यताएँ श्वेताम्बर तथा यापनीय सम्प्रदायों की मान्यताएँ हैं। अतः इनको अमान्य करनेवाले गुणस्थानसिद्धान्त का प्रतिपादक होने से सिद्ध है कि षट्खण्डागम यापनीय-आचार्य द्वारा रचित नहीं है। मिथ्यादृष्टि, गृहस्थ, परतीर्थिक आदि की मुक्ति के विरुद्ध होने से मुणस्थान-सिद्धान्त दिगम्बरमत का सिद्धान्त है। अतः यह तथ्य अनपलाप्य है कि षट्खण्डागम दिगम्बरग्रन्थ ही है। षट्खण्डागम में तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध के सोलह कारण यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथाङ्ग (अध्ययन ८) में तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध के कारणों की संख्या बीस बतलायी गयी है। यथा अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं। वल्लभया य तेसिं अभिक्खणाणोवओगे य॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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