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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ६२३ किन्तु श्वेताम्बरग्रंथों में मरुदेवी को केवलज्ञान प्राप्त होने के समय में ही आयु के क्षीण होने पर सिद्ध गति प्राप्त होना बतलाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उन्होंने सयोगकेवली अवस्था में कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहने का नियम पूरा नहीं किया। न ही सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-ध्यान द्वारा योग निरोधकर अयोगकेवली गुणस्थान प्राप्त किया। तथा अयोगकेवली गुणस्थान में शेष ८५ प्रकृतियों के क्षय के लिए जो समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान आवश्यक होता है, वह भी नहीं किया। और उस ध्यान के बिना ही अघाती कर्मों की ८५ प्रकृतियों का क्षय हो गया। षट्खण्डागम का उपर्युक्त सिद्धान्त इस मान्यता के विरुद्ध है। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण माननेवाली यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। . ४.६. शुभोपयोग के द्वारा केवलज्ञानप्राप्ति के विरुद्ध ___ मृगावती और चन्दना का प्रतिक्रमण तथा क्षमादान की शुभक्रियाएँ करते हुए केवलज्ञान प्राप्त करना भी षट्खण्डागम के गुणस्थानसिद्धान्त के विरुद्ध है। गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार जिसने त्रिगुप्तिरूप शुक्लध्यान के द्वारा मोहनीयकर्म का क्षय कर लिया है (जो क्षीणमोहगुणस्थान को प्राप्त हो गया है), उसी के शेष तीन घाती कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्रकट होता है। मृगावती और चन्दना मनवचनकाय की प्रवृत्ति का निरोध कर शुक्लध्यान में लीन नहीं हुई थीं, अतः उनके मोहनीयादि घाती कर्मों का नाश असंभव है, फलस्वरूप केवलज्ञान का प्रकट होना भी असंभव है। इसके विपरीत प्रतिक्रमण तथा एक दूसरे के पैरों पर गिरना एवं परस्पर वार्तालाप करना, यह मन-वचन-काय का व्यापार पुण्यकर्म के बन्ध का ही कारण हो सकता है। इसके अतिरिक्त केवलज्ञान हो जाने के बाद भी मृगावती में चन्दना को साँप से बचाने की जो इच्छा उत्पन्न हुई, वह शुभराग के अस्तित्व की सूचक है। केवलज्ञान हो जाने के बाद मोहनीय कर्म का अस्तित्व न रहने से राग का अभाव हो जाता है, यह षट्खण्डागम में बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा को खीणकसाय-वीयरायछदुमत्था (ष.खं./पु.८ / ३,३) कहने से स्पष्ट है। अतः यह बात भी षट्खण्डागम के सिद्धान्त के विरुद्ध है। ४.७. सावद्ययोग-परिणत जीव को केवलज्ञानप्राप्ति के विरुद्ध आगे की चार कथाओं (क्र. ४.४.३-४.४.६) के पात्रों को तो स्पष्टतः सावध लौकिक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति बतलायी गयी है। लौकिक क्रियाओं में जीवहिंसा होने से ये आरम्भ या सावद्ययोग कहलाती हैं। इन्हें करने से तो पापकर्म का आस्रव और बन्ध होता है। षट्खण्डागम (पु.१२/४,२,८,२-११) में प्राणातिपात आदि अव्रतों को आठों कर्मों के बन्ध का कारण बतलाया है। नट का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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