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६२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४ यह ज्ञातव्य है कि मोक्ष के लिए उपशमक-श्रेणी पर आरूढ़ होना आवश्यक नहीं
है।
जैसा कि श्री हरिभद्रसूरि ने कहा है, मरुदेवी गृहिलिंग में अर्थात् श्राविका नामक पञ्चमगुणस्थान में थीं। अतः षट्खण्डागम के गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार वे मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय से बँधने वाली ५१ प्रकृतियों तथा आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग एवं तीर्थंकर , इन तीन प्रकृतियों, सब मिलाकर ५४ प्रकृतियों को छोड़कर शेष ६६ प्रकृतियों की बन्धक थीं, क्योंकि उनके प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन तथा यथासंभव नोकषायों का उदय था। (ष.खं./पु.८/३, १५३७ )। तथा छठवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक जितनी गुणश्रेणीनिर्जरा होती है, उतनी गुणश्रेणिनिर्जरा भी उनमें असंभव थी। (ष.खं./पु.१२/४,२,७ / प्रथम चूलिका । गाथा ७-८ पृ.७८)। अतः षट्खण्डागम के अनुसार मरुदेवी को न केवलज्ञान हो सकता है, न मोक्ष। अतः यह ग्रन्थ केवल एकत्व या अनित्य भावना की शक्ति से मरुदेवी को केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्त होने की मान्यता का विरोधी है। ४.५. सयोगकेवलि-गुणस्थान में मुक्ति के विरुद्ध
इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम के अनुसार केवलज्ञान होने के बाद सयोगकेवली अवस्था में कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष रहने का नियम है।७३ इसके बाद आयु का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाने पर आवश्यक हुआ, तो सयोगकेवली भगवान् समुद्धात करके शेष अघाती कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर करते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान में स्थित होते हैं और योगनिरोध द्वारा अयोगकेवली गुणस्थान में पहुँच कर५ समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ध्यान ध्याते हैं और उसके द्वारा आयुकर्मसहित शेष अघाती कर्मों की ८५ प्रकृतियों का क्षयकर सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं।
७३. 'सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण
अंतोमुहत्तं।" ष.खं/ पु.४ / १,५, ३० पृ.३५६ । ७४. क-"तं कधं? एक्को खीणकसाओ सजोगी होदूण अंतोमुहुत्तमच्छिदूण समुग्घादं करिय पच्छा
जोगणिरोहं किच्चा अजोगी जादो।" धवला / ष.खं./ पु.४ / १,५,३१ पृ.३५६। . ख-"देसूणपुव्वकोडिं विहरिय सजोगिजिणो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए दंडकवाडपदरलोगपूर
___णाणि करेदि।" धवला / ष.खं/ पु.१३ / ५,४,२६ / पृ.८४। । ७५. क-"तदियसुक्कज्झाणं जोगणिरोहफलं।" धवला / ष.खं./ पु.१३ /५,४,२६ / पृ.८८ ।
__ अर्थात् योगनिरोध करना तीसरे शुक्लध्यान का फल है। ख-"पच्छा जोगणिरोहं किच्चा अजोगी जादो।" धवला / ष.खं./ पु.४ / १,५,३१/ पृ.३५६ ।
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