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________________ अ०११ / प्र०४ षट्खण्डागम / ६२१ असंयत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करना होगा २ । तत्पश्चात् विभिन्न शुभोपयोगों के द्वारा उत्पन्न विशुद्धपरिणामों से अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का क्षयोपशम करते हुए संयतासंयत ( श्रावक), संयत ( मुनि), अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों पर आरोहण करना होगा। उसके बाद शुद्धोपयोग के द्वारा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो, प्रथम शुक्लध्यान के बल से मोहनीय कर्म का क्षय करना होगा । तब उसके क्षय उत्पन्न यथाख्यातचारित्र एवं द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरणादि शेष तीन घाती कर्मों का विनाश होगा और केवलज्ञान की उत्पत्ति होगी । तदनन्तर सयोगिकेवली गुणस्थान में रहते हुए अन्तर्मुहूर्त - मात्र आयु शेष रहने पर तृतीय शुक्लध्यान धारण करना होगा । उससे योगनिरोध द्वारा अयोगिकेवली - गुणस्थान प्राप्त होगा । उसमें चतुर्थ शुक्लध्यान करने पर सिद्ध अवस्था प्राप्त होगी। ऐसा भी होता है कि कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव एक साथ दर्शनमोहअनन्तानुबन्धी का उपशम तथा अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम कर सीधे देशसंयत गुणस्थान में पहुँचता है और कोई अनादिमिथ्यादृष्टि जीव एक साथ दर्शनमोह-अनन्तानुबन्धी का उपशम तथा अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम कर सीधे अप्रमत्तगुणस्थान प्राप्त करता है । तदनन्तर अप्रमत्तसंयत से प्रमत्तसंयत में और प्रमत्तसंयत से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में संख्यात हजार बार आता जाता है। अतः प्रमत्तसंयत में भी प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर वह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, तत्पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो मोक्ष प्राप्त करता है । (जी.त.प्र./ गो. जी. / गा. ७०४/पृ. ९२९ - ९३२) । मोक्ष के इस मार्ग का कोई विकल्प या अपवाद नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में भी 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' (१/१), 'आस्रवनिरोधः संवरः' (९ /१), 'सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः' (९ / २), 'तपसा निर्जरा च' (९/३),'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात्' (९/२७), 'आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि' (९ / २८), 'परे मोक्ष हेतू' (९ / २९), इन सूत्रों में निर्दिष्ट विधियों को ही मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है और कहा गया है कि इन उपायों को करने पर क्रमशः निर्जरा होती है, एक साथ नहीं । क्रमशः असंख्यातगुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन, इन अवस्थाओं में होती है । (त.सू. / ९ / ४५) । यतः ये अवस्थाएँ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि ग्यारह गुणस्थानों के अन्तर्गत हैं, अतः उपर्युक्त क्रम से उक्त गुणस्थानों में आरोहण कर उत्तरोत्तर अधिक निर्जरा करते हुए ही जीव समस्त कर्मों का क्षय कर पाता है । " ७२. “तीहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति – केई जाइस्सरा, केई सोऊण, केई जिणबिंबं दट्ठूण ।' षट्खण्डागम / पु. ६ / १,९-९, ३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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