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________________ ६२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ के ऊपर कला दिखाते-दिखाते नीचे गिरकर मर जाय, तो नटकन्या उसकी हो जायेगी। यह सोचकर वह नट को पुरस्कार न देकर बार-बार बाँस पर चढ़कर कला दिखाने के लिए कहने लगा। नट ने भी कई बार बाँस की नोंक पर नाभि के बल लेटकर तेजी से घूमने की कला का प्रदर्शन किया। किन्तु जब वह थक गया और उसे राजा के अभिप्राय पर शंका हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और बाँस की नोंक पर आकाश में घूमते-घूमते ही उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। __कथा को हिन्दी में प्रस्तुत करनेवाले श्वेताम्बर साधु श्री मधुकर मुनि लिखते हैं-"बाँस के शिखर पर घूमते-घूमते ही इलापुत्र के भावों में समूचा पूर्व जीवन प्रतिबिम्बित हो गया। प्यार ने कितना तड़पाया, कितना दौड़ाया! एक अतृप्त, अनबुझी प्यास ने उसे आज मृत्यु के मुख पर लाकर खड़ा किया है। वाह रे, झूठे प्रेम! भोगाकुलप्रणय से विरक्त होकर इलापुत्र आत्मा की असीम गहराई में उतर जाता है। मन संवेग की धारा में रम शान्ति, परम तृप्ति अनुभव करता है और समाधि की परम अवस्था प्राप्त होती है। पवित्र और परम उज्ज्वल भावों की श्रेणी चढ़ते-चढ़ते नट इलापुत्र भावश्रमण बन जाता है। शुद्धभावना के बल से कर्मों का क्षय करता है, चार घाती कर्म नष्ट होते हैं और परम दिव्य केवलज्ञानालोक उपलब्ध कर लेता है।--- केवली इलापुत्र वंशशिखर से नीचे उतरे। अब नटकन्या के प्रति उनके मन में कोई राग नहीं था। राजा के प्रति कोई द्वेष भी नहीं था।" (मधुकर मुनि : जैनकथा माला/भाग ४८/ 'इलापुत्र केवली')। ४.४.७. कूर्मापुत्र-जैनसाहित्य में विकार नामक ग्रन्थ में श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदास जी ने 'कूर्मापुत्रचरित्र' का हवाला देते हुए लिखा है-"कूर्मापुत्र नामक मुनि केवलज्ञान प्राप्त होने पर विचार करते हैं कि यदि मैं चारित्र ग्रहण करूँ, तो पुत्रशोक में मेरे माता-पिता की मृत्यु हो जायेगी। --- किसी तीर्थंकर से इन्द्र ने पूछा कि ये कूर्मापुत्र केवली महाव्रती कब होंगे?" (जैनसाहित्य में विकार / पादटिप्पणी। पृ.२३)। यह कथा श्वेताम्बरमत की इस व्यवस्था पर प्रकाश डालती है कि कोई पुरुष महाव्रत धारण किये बिना भी अर्थात् प्रमत्तसंयत गुणस्थान उपलब्ध किये बिना भी 'मुनि' कहला सकता है और उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त मोक्ष के उपर्युक्त मार्गों को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार मनुष्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की गुणस्थान-परम्परा से कर्मों का क्रमशः क्षय करते हुए ही केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सबसे पहले उसे जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, और जातिस्मरण इनमें से किसी एक के द्वारा मिथ्यात्व का विनाशकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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