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अ०११/प्र.४
षट्खण्डागम/६१९
सौ हल थे। एक बार दोपहर में हल चलानेवालों के लिए भोजन आया। हलवाहे भोजन करने के लिए हल छोड़ने की तैयारी करने लगे, परन्तु पाराशर ने पुनः सबको हल चलाने की आज्ञा दे दी। इसलिए पाँच सौ हलवाहे और एक हजार बैल उतने समय तक आहार से वंचित रहे, जिसके फलस्वरूप पाराशर को अन्तरायकर्म का बन्ध हुआ। आयुष्य पूर्ण होने पर दूसरे भव में पाराशर का जीव ढंढणकुमार हुआ, जो आप हैं। पूर्वभव में पन्द्रह सौ जीवों के आहार में अन्तराय उत्पन्न करने के कारण आपने जो अन्तरायकर्म बाँधा था, उसका फल भोगना शेष रह गया था, उसी के परिणामस्वरूप आपको भिक्षा प्राप्त नहीं हुई।
___ अपने पूर्वभव में बाँधे कर्मों की बात सुनकर ढंढण ऋषि उन कर्मों को नष्ट करने के लिए उग्र तप करने लगे। एक दिन वे गाँव में भिक्षा के लिए गये। उस समय श्री कृष्ण जी नेमिनाथ प्रभु की वन्दना करके अपने महल की ओर लौट रहे थे। मार्ग में उन्हें ढंढण ऋषि मिले । श्री कृष्ण जी ने हाथी से उतरकर उनको नमस्कार किया और उनके तप की प्रशंसा की। यह देख एक गृहस्थ ने ढंढण ऋषि से अपने घर भिक्षा हेतु आने का आग्रह किया। ढंढण ऋषि वहाँ गये, तो उनको भिक्षा में लड्ड दिये गये। इससे उन्हें लगा कि अब मेरा अन्तरायकर्म नष्ट हो गया है और मेरे ही प्रभाव से आज मुझे भिक्षा मिली है। वे प्रभु के पास गये और उन्हें बताया कि आज मुझे मेरे ही प्रभाव से भिक्षा प्राप्त हुई है। परन्तु प्रभु ने कहा-"ऐसा नहीं है। आपको श्रीकृष्ण के प्रभाव से भिक्षा मिली है।" तब ढंढण ऋषि ने कहा "यदि ऐसा है तो वह भिक्षा मैं नहीं खा सकता। यदि वे लड्डू मैं खाऊँगा, तो मेरे नियम का भंग होगा। ऐसा सोचकर वे प्रभु की आज्ञा से उन लड्डुओं को निर्दोष स्थान में गाड़ने के लिए चले गये। जब वे राख में गाड़ने के लिए लड्डुओं को मसल रहे थे, तब अपने कर्मों को भी मसलते हुए वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ हो गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। केवली बनकर उन्होंने वर्षों तक संयम का पालन किया और आयुष्य पूर्ण होने पर सिद्ध पद प्राप्त किया। (मोटी साधु वन्दना/छोटालाल जी महाराज/ प्रकाशक-थानकवासी जैन उपाश्रय, लिमड़ी, सौराष्ट्र /१९९१ ई०)।
४.४.६. नट इलापुत्र-श्रेष्ठिकुमार इलापुत्र को एक नटकन्या से प्रेम हो गया। कन्या के पिता ने शर्त रखी कि यदि वह उसके घर में रहकर नटविद्या सीख ले
और राजा के सामने प्रदर्शन कर उससे पुरस्कार प्राप्त करके दिखाये, तो वह अपनी बेटी का विवाह उससे कर देगा। इलापुत्र ने ऐसा ही किया। नटविद्या में पारंगत हो वह एक दिन नटकन्या के साथ जाकर राजा के सामने उसका प्रदर्शन करने लगा। यद्यपि उसकी कला पुरस्कार के योग्य थी, किन्तु राजा भी उस कन्या पर मोहित हो गया। इसलिए उसके मन में विचार आया कि यह नट यदि खड़े बाँस की नोंक
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