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६१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०४ वर्धितः। क्षणं भरतेन मोहाद् विचारितं-'पूर्वं चक्रपूजां करोमि किं वा तातपूजां?' ततो मोहं परित्यज्य सम्यक् विचारितं-'श्रीताते पूजिते सति चक्रमपि पूजितमेव। चक्रपूजा इहलौकिकी, तातपूजा तु पारलौकिकी ततोऽधिका।' ततो भरतः पुत्रनिमित्तं दुःखं कुर्वती मरुदेवी हस्तिस्कन्धे संस्थाप्य भगवन्तं नन्तुं चलितः। मार्गे देवदुन्दुभिं श्रुत्वा मरुदेवी प्राह-'भरत! कस्य एतानि वादित्राणि?' भरतेन प्रोक्तं-'तव पुत्रस्य।' ततः पुत्रसमृद्धिं दर्शनार्थं उत्सुकतया उन्मीलिते नेत्रे गतमन्धपटलं, दृष्टं समवसरणसाम्राज्यं देवैः कृतम्। ततः खेदं चकार-'अहो पुत्रेण ईदृशी ऋद्धिः प्राप्ता, न कदापि मम कुशलक्षेमसमाचारो दत्तः। न कदापि पुत्रेण अहं स्मृता। अहं तु पुत्रदुःखेन अन्धा जाता। अहो मम सरागता, अहो मम पुत्रस्य नीरागता। न मे कोऽपि, नाहं कस्यापि।' इति अनित्यभावनया मोहकर्म क्षपयित्वा, मरुदेवी केवलज्ञानं प्राप्य सिद्धा।"६६
____ आवश्यकचूर्णि के निम्नलिखित कथन में यह बतलाया गया है कि जिस समय मरुदेवी को केवलज्ञान हुआ, उसी समय उनकी आयु. क्षीण हो गई और वे सिद्ध हो गईं। इसमें भगवान् ऋषभदेव का नग्न भ्रमण करना भी बतलाया गया
"भगवतो य माता भणति भरहस्स रजविभूतिं दट्टणं-'मम पुत्तो एवं चेव णग्गओ हिंडति, ताहे भरहो भगवतो विभूतिं वन्नेति। सा ण पत्तियति। ताहे गच्छंतेण भणिता-'एहि जा ते भगवतो विभूतिं दरिसेमि, जदि एरिसिया मम सहस्सभागेण वि अथित्ति।' ताहे हत्थिखंधेण णीति। भगवतो य छत्तादिछत्तं पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उत्पन्नं। तं समयं च णं आयुं खुटुं सिद्धा। देवेहि य से पूया कता, पढमसिद्धोत्ति काऊणं खीरोदे छूढा।"६७
इस कथा के अनुसार मरुदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव से भी पहले सिद्ध हुई थीं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसे गृहलिंग-सिद्धों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है-'गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्रभतयः।' ६८ इस कथा में मरुदेवी को महाव्रत धारण किये बिना, तप और ध्यान किये बिना, मनवचनकाय की प्रवृत्ति का त्याग किये बिना, हाथी पर आरूढ़ अवस्था में ही मात्र एकत्वभावना भाते-भाते केवलज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति बतलायी गयी है।
४.४.२. चन्दना-मृगावती-दूसरी कथा चन्दना और मृगावती की है। इसका वर्णन हरिभद्रसूरि ने आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में तथा समयसुन्दरगणी ने कल्पसूत्र
६६. कल्पसूत्र / समयसुन्दरगणि-विरचित कल्पलताव्याख्या / सप्तमव्याख्यान / पृष्ठ २०६-२०७। ६७. आवश्यकसूत्र (पूर्वभाग)/ सूत्रचूर्णि-जिनदासगणि महत्तर / पृ.१८१ । ६८. ललितविस्तरा / गाथा २ / पृष्ठ ३९९ ।
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