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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम/६१७ की व्याख्या में किया है। एक बार भगवान् महावीर का समवसरण कौशाम्बी नगरी में आया। उनकी वन्दना के लिए सूर्य और चन्द्रमा अपने विमान-सहित आये। उनके विमान कौशाम्बी में आ जाने पर अन्यत्र अन्धकार हो गया। चन्दना और मृगावती (राजा उदयन की माता) आदि साध्वियाँ भी दर्शन के लिये गयी थीं। चन्दना तो सन्ध्याकाल जानकर उपाश्रय में आ गयी, किन्तु मृगावती भगवान् के दर्शन से मोहित होकर बैठी रही। कुछ समय बाद चन्द्र और सूर्य भी अपने स्थानों पर चले गये। तब सर्वत्र अन्धकार फैल गया। मृगावती ने देखा कि वहाँ चन्दना नहीं थी। तब वह अपने को अकेला पाकर डरती हुई उपाश्रय में पहुँची। चन्दना ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके बिस्तर पर लेटी हुई थी। उसके चरणों में प्रणाम कर मृगावती बोली-"मेरा अपराध क्षमा करें।" चन्दना बोली-“भद्रे! तुम देर तक बाहर क्यों रहीं? उत्तम कुल में प्रसूत स्त्रियों को अकेले देर तक बाहर नहीं रहना चाहिए।" मृगावती बोली-“मैंने पाप किया है, मेरा पाप मिथ्या हो, अब मैं ऐसा नहीं करूँगी।" ऐसा कहकर चन्दना के चरणों में गिर पड़ी। चन्दना को उस समय नींद आ गयी थी। मृगावती चन्दना के चरणों में पड़ी-पड़ी तीव्र पश्चात्ताप करती रही, मेरा पाप मिथ्या हो, ऐसी भावना भाती रही। इससे चन्दना के पैरों में पड़ेपड़े ही उसे केवलज्ञान हो गया। . उसी समय अन्धकार में एक भयंकर सर्प वहाँ आया। चन्दना का हाथ विस्तर के बाहर आ गया था। सर्प वहीं से निकल रहा था। मृगावती ने शीघ्र ही चन्दना का हाथ उठाकर बिस्तर पर रख दिया। चन्दना जाग गयी। उसने पूछा-"क्या है?" मृगावती बोली-"यह काला साँप आपके हाथ के पास से जा रहा था, आपको काट न ले, ऐसा सोचकर मैंने आपके हाथ को हटा दिया।" चन्दना ने पूछा-"कहाँ है साँप?" मृगावती बोली-"वह जा रहा है।" चन्दना ने कहा "मुझे नहीं दिख रहा है, तुम्हें दिख रहा है? क्या तुम्हें सातिशय ज्ञान हुआ है?" मृगावती बोली-"हाँ।" चन्दना ने पूछा-"क्या केवलज्ञान हुआ है?" मृगावती बोली-"हाँ।" तब चन्दना पश्चात्तापग्रस्त होकर बोली-"मैंने केवलिनी की आसातना की है।" और उसके पैरों पर गिरकर बोली-"मेरा पाप मिथ्या हो" ऐसा कहते हुए उसे भी केवलज्ञान हो गया।६९ ६९. क-आवश्यकनियुक्ति । भाग १ / हारिभद्रीयवृत्ति / गाथा १०४८ / पृ. २३२ । ख-कल्पसूत्र / कल्पलताव्याख्या-समयसुन्दरगणि / व्याख्यान ९ / पृ. २७३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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