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अ०११/प्र०४
षट्खण्डागम/६१५
आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति होने पर भरत नरेश भगवान् ऋषभदेव के दर्शनार्थ जाने हेतु तैयार होते हैं। वे शीघ्रता से दादी माँ मरुदेवी के पास गये। विनयपूर्वक नमस्कार करके कहा-"दादी माँ! पधारिये! आप सदा उपालम्भ देती रहती थीं कि मेरे पुत्र की सुध नहीं लेते। आज पधारो, आपके पुत्र के ऐश्वर्य को दिखा लाऊँ।" ऐसा कह, दादी माँ को गजारूढ़ कर, स्वयं पीछे छत्रधारी बन वैभवसहित दर्शनार्थ चले। अविच्छिन्न प्रयाण करते हुए समवसरण की ओर चले जा रहे थे। देवदुन्दुभि आदि वाद्ययन्त्रों की ध्वनि कर्णगोचर होते ही दादी माँ ने भरत से प्रश्न किया"वत्स! यह मधुर वाद्य-ध्वनि कहाँ हो रही है?" भरत बोले-"आपके पुत्र के सम्मुख देवदेवीगण मनोहर वाद्ययन्त्रों से युक्त नाटक कर रहे हैं।" मरुदेवी को दिखता तो था नहीं, उन्हें विश्वास नहीं हुआ। आगे बढ़ने पर देवकृत समवसरण दृष्टिगोचर हुआ, तब भरत ने कहा-"देखिये, आपके पुत्र रजत, स्वर्ण और रत्नों के वप्रयुक्त समवसरण में स्वर्णसिंहासन पर विराजमान हैं।" माता जी ने आँखें मलकर देखने का प्रयत्न किया। हर्षावेग से उनका चक्षुरोग दूर हो गया और तीर्थंकर भगवान् तथा समवसरणादि की सारी शोभा देख वे चकित हो गयीं। उनके नेत्रों से हर्षाश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। चिन्तन का प्रवाह आत्माभिमुख हो गया। विचारने लगीं-"अहो! मोह-विकलता! संसार में कौन किसका है? जिस पुत्र का समाचार जानने के लिए व्याकुल रहती थी, भरत को उपालम्भ देती रहती थी, रोते-रोते नयन-ज्योति खो दी थी, वह तो सामने ही नहीं देख रहा है। इसने तो मझे कभी स्मरण तक नहीं किया। मेरा स्नेह एकाङ्गी ही रहा। वास्तव में जीव अकेला ही जन्म लेता व शरीर त्याग देता है।" इस प्रकार एकत्वभावना करते क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो गयीं, अन्तर्महर्त में केवलज्ञान हो गया। आयु पूर्ण हो जाने व साथ ही अन्य कर्मस्थिति-विपाकादि नष्ट हो जाने से उनकी पवित्र आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गयी। देवों ने मरुदेवी माँ के शरीर का बहुमान कर उसे क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया।" ६५
इसका संस्कृत मूल इस प्रकार है-"ऋषभोऽर्हन् कौशलिकः एकं वाससहस्रं नित्यं व्युत्सृष्टकायः-त्यक्तदेहः सन् ये केचन उपसर्गा उत्पद्यन्ते यावत् आत्मानं भावयतः एकं वर्ष-सहस्रं व्यतीतम्। ततो हेमन्तस्य चतुर्थे मासे सप्तमे पक्षे एतावता फाल्गुनवदि एकादशीदिने पूर्वाह्नकालसमये पुरिमताल-नाम-नगरस्य बहिः शकटमुखे उद्याने वटवृक्षस्य अधः अष्टमेन भक्तेन अपानकेन उत्तराषाढनक्षत्रे चन्द्रेण सह योगं वर्तमाने ध्यानान्तरे वर्तमानस्य भगवतः केवलज्ञानमुत्पन्नम्। तेन यावत् सर्वं जानन् पश्यन् विहरति। तस्मिन्नेव दिने भरतस्य राज्ञः आयुधशालायां चक्ररत्नोत्पत्तिर्जाता। ततो भरतः केवलज्ञानोत्पत्ति-चक्रोत्पत्तिभ्यां समकालं
६५. कल्पसूत्र-भाषानुवाद / सप्तमवाचना / आर्यारत्न सज्जनश्री / पृष्ठ ३०९-३१० ।
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