SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ इस नियम के अनुसार जयन्तविमान से निकला हुआ महाबल का जीव स्त्री के रूप में उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः षट्खण्डागम का यह नियम मल्लिनाथ के स्त्री होने की श्वेताम्बरीय और यापनीय मान्यता के प्रतिकूल है। ९. ज्ञातृधर्मकथाङ्ग में कहा गया है कि मल्ली-तीर्थंकर को अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करने के पश्चात् ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि हो गयी, क्योंकि अपूर्वकरण-गुणस्थान इन दोनों का आवरण करनेवाले कर्म की रज को दूर करता है।६३ किन्तु षट्खण्डागम का कथन है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान के अन्त में होती है। अतः षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त इस मान्यता के भी विरुद्ध है। तथा कोई भी जीव स्त्रीपर्याय से अरहंत पद प्राप्त नहीं कर सकता,६४ यह मानते हुए भी मल्ली के स्त्रीपर्याय से तीर्थंकर होने की घटना को जो अछेरा कहा गया है, वह भी युक्तिसंगत नहीं है। मल्ली ने तो श्वेताम्बरीय कर्मसिद्धान्त के अनुसार ही तीर्थंकरपद प्राप्त किया था। पूर्वभव में मुनि बने, मायापूर्वक तप किया और मायापूर्वक ही बीस कारण-भावनाओं की आराधना की। इसी से उन्हें स्त्रीपर्याय और तीर्थंकर पद की प्राप्ति हुई थी। इस कर्मसिद्धान्त के अनुसार तो कोई भी पुरुष किसी भी काल में (वह हुण्डावसर्पिणी हो, चाहे न हो) स्त्रीत्व और तीर्थंकरत्व दोनों पर्यायों को एक साथ प्राप्त कर सकता है। अतः इसे अछेरा मानना युक्तिसंगत नहीं है। ४.४. लौकिक क्रियाएँ करते हुए केवलज्ञान-प्राप्ति के विरुद्ध .. श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसी कथाएँ हैं, जिनमें कहा गया है कि मरुदेवी से लेकर एक नट तक कई गृहस्थ एवं परतीर्थिक, जिनोपदेश प्राप्त किये बिना, महाव्रत धारण किये बिना, परिग्रह का त्याग किये बिना, तप और शुक्लध्यान में लीन हुए बिना, योगनिरोध किये बिना, लौकिक क्रियाएँ करते हुए केवलज्ञानी हो गये और उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। . ४.४.१. मरुदेवी-इसी रीति से मरुदेवी के मुक्त होने की कथा आवश्यकचूर्णी तथा कल्पसूत्र की व्याख्याओं में इस प्रकार वर्णित है ६३ "तए णं मल्ली अरहा --- तयावरण-कम्मरय-विकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते जाव (अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे) केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने।" ज्ञातृधर्मकथाङ्ग युवाचार्य मिश्रीमल महाराज 'मधुकर'/ अध्ययन ८/ पृष्ठ २७८ । ६४. अरहंत-चक्कि-केसव-बल-संभिन्ने य चारणे पव्वा। गणहर-पुलाय-आहारगं च न हु भवियमहिलाणं॥ १५०६॥ प्रवचनसारोद्धार / पृ.३२५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy