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अ०११ / प्र०४
षट्खण्डागम / ६१३
षट्खण्डागम के आबाधाकाल - सिद्धान्त के अनुसार स्त्रीनामगोत्रकर्म के लिए तीसरे भव में उदय का अवसर ही नहीं मिल सकता। महाबल ने चौरासी लाख वर्षों तक संयम का पालन किया और चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोगा । ६२ इसका तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा बाँधा गया स्त्रीनामगोत्रकर्म का आबाधाकाल (लगभग एक वर्ष) उसी भव में समाप्त हो गया था और उसी भव में उदय के योग्य हो गया था। किन्तु एक भव में एक ही वेद का उदय रहता है, इस नियम के अनुसार उसका उसी भव में स्वमुख से उदय में आना संभव नहीं था, वर्तमानभव में पुरुषनामगोत्रकर्म का उदय चल रहा था, अत एव उसका स्तिबुकसंक्रमण द्वारा पुरुषनामगोत्रकर्म के मुख से उदय में आना अनिवार्य था । इसी तरह पुरुषनामगोत्रकर्म के उदय के साथ वर्तमान भव समाप्त होने पर जब जयन्त नामक विमान में महाबल ने जन्म लिया होगा, तब देवपर्याय में स्तिबुकसंक्रमण द्वारा निर्जरा होते-होते स्त्रीनामगोत्रकर्म के द्रव्य का समाप्त हो जाना अवश्यम्भावी था । सम्यग्दृष्टि देव होने के कारण महाबल के जीव को देवपर्याय में मनुष्यायु, मनुष्यगति और औदारिकशरीर - नामकर्म के साथ औदारिकशरीराङ्गोपांग-नामकर्म के अन्तर्गत पुरुषनामगोत्रकर्म के बन्ध के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था, जिसके फलस्वरूप वे जयन्तविमान से च्युत होकर भरतक्षेत्र में पुरुषशरीर से ही तीर्थंकर बन सकते थे, किसी अन्य शरीर से नहीं। इस प्रकार षट्खण्डागम के गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार मल्लिनाथ का स्त्रीरूप में तीर्थंकर होना किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता । अतः यह ग्रन्थ यापनीयमत के विरुद्ध है।
८. षट्खण्डागम में प्रतिपादित नियम के अनुसार अनुदिश-विमानों से लेकर सर्वार्थ-सिद्धिविमान तक के देवों में जीव सम्यक्त्व के साथ ही प्रवेश करते हैं और सम्यक्त्व के साथ ही निकलते हैं तथा कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीपर्याय में जन्म नहीं लेता । प्रमाण के लिए ये सूत्र द्रष्टव्य हैं
" अणुद्दिस जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा सव्वे ते णियमा सम्माइट्ठि त्ति पण्णत्ता । " ( ष .खं. / पु. ६/१, ९ - ९,४३)।
'अणुदिस जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु सम्मत्तेण अधिगदा णियमा सम्मत्तेण चेव णींति । " ( ष. खं. / पु. ६ / १,९-९,७५) ।
"सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद - संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।" (ष. खं / पु. १ / १,१,९३) ।
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६२. “चउरासीइं वाससयसहस्साइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीइं पुव्वसयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना । " ज्ञाताधर्मकथांग / अध्ययन ८ - मल्ली / पृष्ठ २२० ।
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