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६१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०४ अधिक अन्तर्मुहूर्त-सहित ८ वर्ष कम, २ कोटि पूर्व वर्ष और २२ सागर की स्थितिवाला होगा, जो कि अपना आबाधाकाल (जो एक वर्ष भी नहीं बनता) बीत जाने पर अवश्य उदय में आना चाहिए था। दिगम्बरीय सिद्धान्तानुसार तथा श्वेताम्बरीय ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धार, चतुर्थभाग (शतकनामा पंचम कर्मग्रन्थ) के पृष्ठ ४४६-४४७ के अनुसार एक कोटाकोटिसागर-स्थितिवाले कर्म का आबाधाकाल एक सौ वर्ष है। अर्थात् एक कोटाकोटि-सागर-स्थितिवाला कर्म एक सौ वर्ष पीछे उदय में आता है। महाबल के जीव ने तो एक सौ सागर की स्थितिवाला भी स्त्रीलिंग नहीं बाँधा था। तदनुसार महाबल को देवपर्याय में स्त्रीलिंग के उदय से देव न होकर अच्युत स्वर्ग तक की कोई देवी होना चाहिए था, जयन्तविमान का देव कैसे हुआ? अतः महाबल के भव का बाँधा हुआ स्त्रीलिंग २२ सागर बाद मल्लिनाथ तीर्थंकर के भव में कर्मसिद्धान्तानुसार उदय में नहीं आ सकता।"६१
षटखण्डागम के निम्नलिखित सूत्रों के अनुसार स्त्रीवेद का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम है तथा उत्कृष्टस्थिति का आबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष है
"सातावेदणीय-इत्थिवेद-मणुसगदि-मणुसगदिपाओग्गाणुपुविणामाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ। पण्णारस वाससदाणि आबाधा।" (ष. खं./पु.६/१,९-६, ७-८)। ।
___ पन्द्रह कोटाकोटि-सागरोपम-स्थिति का आबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष है, अतः एक कोटाकोटिसागर का आबाधाकाल सौ वर्ष आता है।
इसी के अनुसार प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग, गाथा १२८२) की सिद्धसेनसूरिशेखर-कृत वृत्ति में भी एक कोटाकोटि सागर का आबाधाकाल सौ वर्ष संकेतित किया गया है। यथा
__ “यस्य कर्मणो यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपादिता तस्य कर्मणस्तावन्मात्राणि वर्षशतानि भवत्युत्कृष्टोऽबाधाकालः, यथा मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः ततस्तस्य सप्ततिवर्षशतान्याबाधा। एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। आयुषि पुनरुत्कृष्टोऽबाधाकालो भवत्रिभागः पूर्वकोटित्रिभागलक्षणः, पूर्वकोटित्रिभागमध्ये बध्यमानायुर्दलिक-निषेकं न विदधातीत्यर्थः। वेद्यमानस्य ह्यायुषो द्वयोस्त्रिभागयोरतिक्रान्तयोस्तृतीये भागेऽवशिष्टे परभवायुषो बन्धः। ततः पूर्वकोटित्रिभागो लभ्यते, जघन्या त्वाबाधा सर्वेषामपि कर्मणामन्तर्मुहूर्तप्रमाणेति।"
६१. दिगम्बर-जैनसिद्धान्त-दर्पण / द्वितीय अंश / पृ.२३२ ।
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