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अ०११/प्र०४
षट्खण्डागम / ६११ है कि पूर्वभव के सम्यक्त्व का सहयोग उस जीव को अपर्याप्त दशा में भी है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-मान्य इसी मन्तव्य को लेकर भाष्य में हुण्डावसर्पिणी इस पंक्ति द्वारा शङ्का उठाई गयी है, उसी का समाधान भाष्य में "इति चेत्, नोत्पद्यन्ते। कुतोऽवसीयते? अस्मादेवार्षात्" इन वाक्यों से किया है।
"शङ्का-इस आर्षसूत्र में ऐसा कौन-सा वाक्य है, जिससे कि यह समाधान हो जाता है?
"इसका स्पष्ट उत्तर यह है कि आर्षसूत्र में णियमा पजत्तियाओ यह वाक्य पड़ा है। इससे अपर्याप्त दशा में सम्यक्त्व का स्पष्ट निषेध हो जाता है।"५८
परमादरणीय पण्डित वंशीधर जी व्याकरणाचार्य ने हुण्डावसर्पिणी के श्वेताम्बरीय तर्क को इस प्रकार असंगत ठहराया है
"हुण्डावसर्पिणी-कालदोष के प्रभाव से परम्पराविरुद्ध कार्य तो हो सकते हैं, परन्तु उससे करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निर्णीत सिद्धान्तों का अपलाप नहीं हो सकता। कारण, सम्पूर्ण काल, सम्पूर्ण क्षेत्र, सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण अवस्थाओं को ध्यान में रखकर करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निर्णीत सिद्धान्तों पर कालविशेष, क्षेत्रविशेष, द्रव्यविशेष और अवस्था-विशेष का प्रभाव नहीं पड़ सकता है। इसलिए जब करणानुयोग का यह नियम है कि कोई प्राणी सम्यग्दर्शन की हालत में मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, तो हुण्डावसर्पिणी काल का दोष इसका अपवाद नहीं हो सकता।"५९
इस प्रकार मल्लीकथा में महाबल के 'जयन्त' स्वर्ग से चयकर सम्यग्दर्शनसहित स्त्रीपर्याय में आने की जो बात कही गई है वह षट्खण्डागम के उपर्युक्त ९३वें सूत्र के विरुद्ध है।
७. महाबल द्वारा बाँधा गया स्त्रीनामगोत्रकर्म आबाधाकाल की दृष्टि से भी षट्खण्डागम के कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल है। इसका स्पष्टीकरण स्व० पं० अजितकुमार जी शास्त्री ने इस प्रकार किया है-"महाबल राजा ने साधु अवस्था में छलपूर्वक तपस्या करते हुए जो स्त्रीलिंग का बन्ध किया, वह तीर्थंकरप्रकृति ६° के अनुसार अधिक से ५८. लेख–'श्री षटखण्डागम के ९३ वें सूत्र के संजद शब्द पर विचार'/'दिगम्बरजैन-सिद्धान्त
दर्पण'/ तृतीय अंश / पृष्ठ ७-८। ५९. 'पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ'/ खण्ड ५ 'साहित्य और इतिहास'/ पृ.२२ । ६०. तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम है तथा आबाधाकाल
अन्तर्मुहूर्तमात्र है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव को किसी भी प्रकृति का स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर से अधिक नहीं होता। (ष.खं/ पु.६/१,९-६,३३-३४)।
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