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६१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४ कि महाबल के सम्यग्दृष्टि होते हुए भी स्त्रीपर्याय में मल्ली के रूप में जन्म लेने की जो श्वेताम्बरीय मान्यता है, वह असमीचीन है। श्वेताम्बर स्वयं मानते हैं कि भव्य स्त्रियाँ ये दस पद प्राप्त नहीं कर सकतीं-१. अरहंत २. चक्रवर्ती ३. नारायण ४. बलभद्र ५. संभिन्नश्रोता ६. चारणऋद्धि ७. चतुर्दशपूर्व-धारित्व ८. गणधर ९. पुलाक और १०. आहारकऋद्धि।५६ इसके बावजूद उन्होंने यह मान लिया है कि मल्ली-कुमारी स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर हुई थीं। अतः इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से दस आश्चर्यजनक घटनाओं के होने की कल्पना की है, जिनमें एक स्त्री के तीर्थंकर होने की कल्पना भी है।५७ अर्थात् वे इस नियमविरुद्ध घटना के बचाव में यह कहते हैं कि यद्यपि कर्मसिद्धान्त के अनुसार स्त्री तीर्थंकर नहीं हो सकती, तथापि हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से ऐसी आश्चर्यजनक घटना हुई है। इस हुण्डावसर्पिणी काल के तर्क का अनौचित्य दर्शाने के लिए ही वीरसेन स्वामी ने उपर्युक्त प्रश्न उठाया है और ऊपर निर्दिष्ट ९३वें सूत्र में आये णियमा पजत्तियाओ शब्दों से सिद्ध किया है कि सम्यग्दृष्टियों के स्त्रियों में उत्पन्न न होने का नियम निरपवाद है, हुण्डावसर्पिणी काल आदि के दोष से उसका उल्लंघन नहीं हो सकता।
पं.. रामप्रसाद जी शास्त्री ने भी इस तथ्य पर प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं-"हुण्डावसर्पिण्यां इत्यादि शब्द द्वारा जो शंका भाष्य में उठाई है, वह श्वेताम्बरपक्ष को लेकर उठाई गई है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से द्रव्यस्त्री को मोक्ष माना है और उनमें भी श्री मल्लिनाथ तीर्थंकर को स्त्री माना है। जब सूत्र ९३ में स्त्री को अपर्याप्त दशा में चतुर्थ गुणस्थान का निषेध किया गया है, तब यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है कि जिसके पूर्वभव में सम्यक्त्व है, वह जीव स्त्रीपर्याय में पैदा नहीं होता। और जब स्त्रीपर्याय में पैदा नहीं होता, तो उसके अपर्याप्त दशा में सम्यक्त्व नहीं होता है। परन्तु श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से अछेरा (अनहोनी बात का होना) होने के कारण मल्लिनाथ तीर्थंकर स्त्री हुए हैं, ऐसी दशा में यह बात स्पष्ट सिद्ध है कि तीर्थंकर-प्रकृतिवाले जीव के पूर्वभव का सम्यक्त्व होगा, तभी वह आगे के जन्म में पंचकल्याणवाला तीर्थंकर होगा। अतः सिद्ध ५६. अरहंत चक्किकेसवबल-संभिन्ने य चारणे पुव्वा।
गणहर-पुलाय-आहारगं च न हु भवियमहिलाणं॥ १५०६॥ प्रवचनसारोद्धार / पृष्ठ ३२५ । ५७. दस अच्छेरगा पण्णत्ता, तं जहा
उवसग्ग गब्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकंका उत्तरणं चंदसूराणं॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पातो य अट्ठसयसिद्धा। अस्संजतेसु पूआ दस वि अणंतेण कालेण॥ स्थानांगसूत्र / दशमस्थान / सूत्र १६० ।
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