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________________ अ०११ / प्र० ४ षट्खण्डागम / ६०९ द्रव्यसंयम) के अभाव में जयन्त नामक अनुत्तरविमान में उनकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । ४. मायाचार करनेवाला मायाशल्य से ग्रस्त होने के कारण तत्त्वार्थसूत्र (७/१८) के 'निःशल्यो व्रती' वचन के अनुसार व्रती नहीं हो सकता अथवा मायाशल्य के कारण व्रतों का निरतिचार पालन करने में असमर्थ होने से 'शीलव्रतेष्वनतिचारः '(त.सू./ ६ / २४) नियम के अनुसार तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं कर सकता । ५५ ५. अपने मित्रों से अधिक तप करके का लक्षण है । यह 'दर्शनविशुद्धता' के बन्ध के विरुद्ध है । उनसे उच्च बन जाने की आकांक्षा निदानशल्य अभाव का सूचक है, जो तीर्थंकरप्रकृति के ६. मल्लीकथा में महाबल को दर्शनविशुद्धता आदि बीस भावनाओं के बल से तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध करके जयन्त नामक स्वर्ग में देवपर्याय की प्राप्ति बतलायी गयी है और वहाँ से च्युत होने पर स्त्रीपर्याय में सम्यग्दर्शनसहित आना बतलाया गया है। किन्तु षट्खंडागम में कहा गया है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीपर्याय में उत्पन्न नहीं होता, स्त्रीपर्याय में उत्पन्न होने के बाद ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है । (देखिये, इसी प्रकरण का शीर्षक १ ) । षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा - गत पूर्वोद्धृत ९३ वें सूत्र का प्रमाण देकर धवला - टीकाकार वीरसेन स्वामी ने सिद्ध किया है कि हुण्डावसपिर्णी काल में द्रव्यस्त्रियों और भावस्त्रियों दोनों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते । देखिए - " हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत् ? नोत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात्।" (धवला / ष.खं. / पु. १ / १,१,९३/ पृ.३३४-३३५) । अनुवाद – “हुण्डावसर्पिणी काल में क्या सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों (द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों) में उत्पन्न नहीं होते ? नहीं होते। इसका क्या प्रमाण है ? यही आर्षवचन ( सूत्र ९३ ) प्रमाण है । " वस्तुतः यह सूत्र सभी कालों में सम्यग्दृष्टियों की स्त्रीपर्याय में उत्पत्ति का निषेधक है । किन्तु वीरसेन स्वामी ने यहाँ विशेषरूप से हुण्डावसर्पिणी काल का प्रश्न क्यों उठाया, यह ध्यान देने योग्य है। इस प्रश्न को उठाने का प्रयोजन यह दर्शाना है ५५. “सुरावाण-मांसभक्खण - कोह- माण - माया - लोह - हस्स - रइ - अरइ - सोग-भय- दुगुंछित्थि - पुरिसणवुंसयवेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसिं विणासो णिरदिचारो सपुण्णदा (सम्पूर्णता ), तस्स भावो णिरदिचारदा । तीए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि । " धवला / ष.खं./पु.८ / ३,४१/पृ. ८२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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