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६०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र.४ क्योंकि समस्त जिनों के तीर्थों में धर्म का प्रतिपादन पुरुषों के द्वारा ही किया गया है। भले ही कोई आर्यिका सौ वर्ष की दीक्षित हो और साधु आज का दीक्षित हो, तो भी सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका को आज के दीक्षित साधु की अभ्यर्थना, वन्दना, नमस्कार, विनय और पूजा करनी चाहिए। धर्म पुरुषों से उत्पन्न हुआ है, पुरुषश्रेष्ठों ने ही उसका उपदेश दिया है, इसलिए पुरुष बड़ा है। लोक में भी पुरुष ही प्रभु होता है, तब लोकोत्तम की तो बात ही क्या?
सव्वाहिं संजईहिं किइकम्मं संजयाण कायव्वं । पुरिसुत्तिमुत्ति धम्मो सव्वजिणाणं पि तित्थेसु॥ वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू। अभिगमण-वंदण-नमंसणेणं विणयेण सो पुज्जो ॥ धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओ पुरिसजिट्ठो। '
लोए वि पहू पुरिसो किं पुण लोगुत्तमे धम्मे॥५३ आगे कहा गया है कि स्त्री की वन्दना करने में बहुत दोष होते हैं, क्योंकि वे तुच्छ होती हैं, इसलिए वन्दना करने से उन्हें अभिमान हो जाता है। अभिमान होने से नीच गोत्रकर्म का बन्ध होता है। लोक में भी स्त्री की वन्दना निन्द्य मानी गयी है
"स्त्रीवन्दने च बहवो दोषाः। यतः तुच्छत्वाद् गर्वः। गर्वाच्च नीचैर्गोत्रकर्मबन्धः लोकेऽपि स्त्रीवन्दनं निन्द्यमिति।"५४
ऐसी तुच्छ स्त्रीपर्याय का बन्ध अनगार-अवस्था में अर्थात् प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतगुणस्थानों में नहीं हो सकता। षट्खंडागम के अनुसार जब स्त्रीवेद के बन्ध का विच्छेद द्वितीयगुणस्थान के अन्त में हो जाता है, तब प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत-गुणस्थानों में उसका बन्ध कैसे हो सकता है? इस तरह महाबल अनगार को स्त्रीनामगोत्रकर्म के बन्ध की श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यता षट्खण्डागम के गुणस्थानसिद्धान्त के विरुद्ध
३. स्त्रीनामगोत्रकर्म का बन्ध मानने पर महाबल को मिथ्यादृष्टि मानना होगा और मिथ्यादृष्टि मानने पर उन्हें प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत-गुणस्थानों (अनगार-अवस्था) को प्राप्त नहीं माना जा सकता और प्रमत्त-अप्रमत्त-संयतगुणस्थानों (भावसंयमसहित
५३. कल्पप्रदीपिकावृत्ति में उद्धृत / कल्पसूत्र / गाथा ३ / पृ.२। ५४. कल्पप्रदीपिकावृत्ति / कल्पसूत्र / गाथा ३ / पृ.२ ।
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