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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ६०७ बन्ध सम्यग्दृष्टि को। इसलिए राजकुमार महाबल को यदि स्त्रीवेद एवं स्त्रीवेदनामकर्म का बन्ध माना जाय, तो तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं माना जा सकता और यदि तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध माना जाय, तो स्त्रीवेद एवं स्त्रीवेदनामकर्म का बन्ध अमान्य होता है। उक्त प्रकृतियों के बन्धक एवं अबंधक बतलाने वाले सूत्र इस प्रकार हैं "णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोभइत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्विउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो?" (ष.ख./ पु.८ । ३,७)। "मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।" (ष. खं./ पु. ८/३,८)। "तित्थयरणामस्स को बंधो को अबंधो? (ष. खं./पु.८/३/३७)। "असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा --- । एदे बंधा अवसेसा अबंधा।" (ष.खं/पु.८/३, ३८)। २. महाबल अनगार थे अर्थात् षट्खण्डागम के अनुसार प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में स्थित थे। षट्खण्डागम के उपर्युक्त सूत्रों में प्रमत्तसंयत-गुणस्थानवर्ती को मायाचार के निमित्त से बँधनेवाले स्त्रीवेद, तिर्यंचायु एवं तिर्यंचगति ५१ के बन्ध का अभाव बतलाया गया है, जिससे मायाचारनिमित्तक स्त्रीनामगोत्रकर्म के बन्ध का भी अभाव फलित होता है। स्त्रीपर्याय को श्वेताम्बरसाहित्य में अत्यन्त हेय बतलाया गया है, यथा प्रकरणरत्नाकर में कहा गया है तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुब्बला अधीइए। इअ अइवसेस झयणा भूअवाउं अनोच्छीणं॥५२ अनुवाद-"स्त्रियों को दृष्टिवादनामक बारहवाँ अंग नहीं पढ़ना चाहिए, क्योंकि वे स्वभाव से तुच्छ होती हैं, इसलिए अभिमान बहुत करती हैं, अतिशयज्ञान पचा नहीं पातीं, उनकी इन्द्रियाँ चंचल होती हैं और बुद्धि दुर्बल होती है।" कल्पसूत्र की टीका में निम्नलिखित तीन गाथाएँ उद्धृत कर प्रमाणित किया गया है कि साध्वियों को समस्त साधुओं का अभिगमन, वन्दन और नमन करना चाहिए, ५१. "माया तैर्यग्योनस्य।" तत्वार्थसूत्र / ६/१६ । ५२. प्रकरणरत्नाकर / चतुर्थभाग / 'जोगोवओगलेस्सा' इत्यादि ५५ वीं गाथा की टीका में पृष्ठ ८०९ . पर उद्धृत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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