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________________ ६०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र.४ महाबल में अपने मित्रों से उच्च बनने की भावना आ गई। अतः वे उनसे छिपा कर अधिक तप करने लगे। पारणे के दिन वे कह देते कि आज मेरे. पैरों में दर्द है, आज मेरा सिर दुख रहा है, आज मेरे पेट में पीड़ा है, आज मुझे भूख नहीं है, इसलिए मैं पारणा नहीं करूँगा, आप लोग कर लीजिए।८ इस प्रकार कपटाचरण से उन्हें पारणा करा देते और स्वयं उपवास कर लेते। इस तरह माया से विंशतिस्थानक (तीर्थंकर-प्रकृतिबन्धक बीस कारणभावनाओं) की आराधना करके तीर्थंकरनामकर्म बाँध लिया, किन्तु मायावश द्रव्यस्त्रीवेद (स्त्रीनामगोत्रकर्म) भी बँध गया।९ तप के बल से वे 'जयन्त' नामक अनुत्तर विमान में देव हुए। वहाँ से चयकर स्त्रीपर्याय प्राप्त की और उसी पर्याय से 'मल्ली' तीर्थंकर हुए। ५० चूँकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे, इसलिए यह कथा यापनीयपरम्परा में भी मान्य थी। किन्तु यह कथा षट्खण्डागम के गुणस्थानसिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त से सर्वथा असंगत है। उदाहरणार्थ १. षट्खण्डागम के अनुसार स्त्रीवेद एवं स्त्रीनामगोत्रकर्म (स्त्र्यंगोपांग-नामकर्म) का बन्ध मिथ्यादृष्टि एवं सासादन-सम्यग्दृष्टि को होता है और तीर्थंकरप्रकृति का ४८. क- "अन्यदा च महाबलमुनिस्तेभ्यो विशिष्टतरफलेप्सया पारणकदिने पादोऽद्य मे दुष्यति, शिरोऽद्य मे दुष्यति, दुष्यत्युदरमद्य मे, नास्ति मेऽद्य क्षुदित्यादिव्यपदेशेन मायया तान् वञ्चयित्वा तपश्चक्रे। तेन च मायामिश्रेण तपसा स्त्रीवेदकर्म अर्हद्वात्सल्यादिभिः विंशतिस्थानैस्तीर्थकृन्नामकर्म च बद्ध्वा---।" प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग)/वृत्ति/ गाथा ८८९/ पृष्ठ २५६। ख- "ततो मायागर्भ तीर्थकरत्वं बद्ध्वा---।" उदयप्रभसूरिकृत टिप्पणी/ प्रवचनसारोद्धार गाथा ८८९ / पृष्ठ १८३। ४९. "सप्ताऽपि गुरुप्रसादात् एकादशाङ्गानि पेठुः। 'सर्वैः समानं तपः कार्यम्' इति प्रतिज्ञां कृत्वा, तपः कर्तुं प्रारब्धम्। महाबलस्तु आगामिभवेऽपि 'अहम् एतेभ्योऽधिकं भवामि' इति हेतोः अधिकतपः-करणाय पारणकदिने 'शिरो मे दूष्यति' इति मिषं कृत्वा मायया उपवासं कृत्वा, मायाप्रत्ययं स्त्रीगोत्रं कर्म बद्धवान्। विंशतिस्थानकसेवनेन तीर्थङ्करनामगोत्रमपि बद्धवान्।" कल्पसूत्र-कल्पलताव्याख्या / समयसुन्दरगणी / द्वितीयव्याख्यान / पृष्ठ ३४। ५०. "तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थिणामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु -जइ णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। जइ णं ते महब्बलवजा अणगारा छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। एवं अट्ठमं तो दसमं, अह दसमं तो दुवालसमं। इमेहि य वीसाएहि कारणेहि आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्म निव्वत्तिंसु, तं जहा ---" ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अध्ययन ८/मल्ली/प्रधान सम्पादक-युवाचार्य मिश्रीमल महाराज 'मधुकर'/ पृष्ठ २१७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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