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अ०११/प्र.४
षट्खण्डागम / ६०५
इस प्रकार चारित्रमोहनीय के पूर्ण क्षय में समर्थ चारित्र की प्राप्ति दशमगुणस्थान में होती है तथा ज्ञानावरणादि शेष तीन घाती कर्मों के क्षय में समर्थ चारित्र बारहवें गुणस्थान में उपलब्ध होता है। और अघातिकर्मचतुष्टय के क्षय की योग्यता अयोगिकेवलिगुणस्थान में पहुँचे हुए जीव में ही आती है। उससे नीचे के गुणस्थानों में रहने वाले जीवों में नहीं। इस प्रकार गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थ में यथाख्यातचारित्र का सद्भाव और योग का अभाव न होने से कर्मक्षय की योग्यता नहीं होती, अतः वह मुक्त नहीं हो सकता। अत एव गुणस्थानसिद्धांत गृहस्थमुक्ति के विरुद्ध है। षट्खण्डागम में बतलाया गया है कि १. सातिशय मिथ्यादृष्टि (सम्यक्त्वोन्मुख मिथ्यादृष्टि), २. श्रावक (देशव्रती), ३. विरत (महाव्रती), ४. अनन्तानुबन्धीकषाय-विसंयोजक, ५. दर्शनमोहक्षपक, ६.चारित्रमोह-उपशमक, ७. उपशान्त-कषाय, ८.क्षपक, ९. क्षीणमोह, १०. स्वस्थानजिन, तथा ११. योगनिरोध में प्रवृत्त जिन, इनके कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। इनमें गृहस्थ (श्रावक) का स्थान दूसरा है, अर्थात् उसके कर्मों की बहुत कम निर्जरा होती है। सम्पूर्ण निर्जरा के लिए उसे नौ सीढ़ियाँ और चढ़ना आवश्यक होता है, तब कहीं वह मोक्ष का पात्र हो सकता है। स्पष्ट है कि षखंडागम के अनुसार गृहस्थमुक्ति सम्भव नहीं है।
प्रसिद्ध श्वेताम्बर आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरा (पृ.३९४) में लिखा है कि सिद्ध भगवान् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के चौदह गुणस्थानरूप सोपानों पर क्रमशः चढ़ते हुए सिद्ध हुए हैं। (देखिये, अध्याय १० / प्रकरण ५/ शीर्षक ३.४)।।
श्री हरिभद्रसूरि के इन वचनों से भी स्पष्ट है कि चूंकि गृहस्थ (श्रावक) सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र के केवल दूसरे सोपान पर स्थित होता है, अतः वह मुक्त नहीं हो सकता। इस प्रकार षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयों को मान्य गृहस्थमुक्ति के भी विरुद्ध है। ४.३. स्त्री के तीर्थंकर होने के विरुद्ध
महाबल का स्त्रीतीर्थंकर 'मल्ली' के रूप में जन्म असिद्ध-यापनीयमत में श्वेताम्बर-मत की तरह स्त्रीमुक्ति भी मान्य है। श्वेताम्बर-आम्नाय मानता है कि तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे। अन्तिम भव से पूर्ववर्ती तीसरे भव में उन्होंने महाबल नामक राजकुमार (पुरुष) के रूप में जन्म लिया था। अपने छह मित्रों के साथ वे अनगार हुए और सातों मित्रों ने प्रतिज्ञा की, कि वे एक ही बराबर तप करेंगे, कोई ज्यादा कोई कम नहीं, ताकि अगले भव में सभी समान पद प्राप्त करें। किन्तु प्रतिज्ञा करके राजकुमार ४७. षट्खण्डागम/पु.१२/४,२,७/ प्रथम चूलिका/गाथा ७-८ तथा सूत्र १७५-१९६ । देखिये, दशम
अध्याय 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय', पादटिप्पणी १६८ ।
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