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________________ ६०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र० ४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग का अवलम्बन कर तथा सोलह कारणभावनाओं या श्वेताम्बरमान्य विंशतिस्थानकों की आराधना द्वारा तीर्थंकरपद हासिल किया था। षट्खण्डागम के अनुसार इन सोलह कारणभावनाओं की आराधना का प्रत्येक भव्यजीव अधिकारी है और उन्हीं भव्यजीवों में से कोई तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध कर लेता है। इसके अलावा षट्खण्डागम में वज्रवृषभनाराचसंहनन के बन्ध का अधिकारी भी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान तक के जीवों को बतलाया गया है । (पु.८ / ३,१७-१८) । यद्यपि पंचमकाल में कर्मभूमिजों में वज्रवृषभनाराचसंहनन का उदय नहीं होता, तथापि षट्खण्डागम में पुरुषों के लिए जिनलिंगधारण करने में कोई बाधा नहीं बतलायी गयी है । अतः उसके अनुसार एक मात्र जिनलिंग ही केवलज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत भावलिंग की उत्पत्ति का हेतु है । इस प्रकार षट्खण्डागम में प्रतिपादित गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयों को मान्य मिथ्यादृष्टि (परलिंगी) की मुक्ति के विरुद्ध है । ४. २. गृहस्थमुक्ति के विरुद्ध गुणस्थानसिद्धान्त गृहस्थमुक्ति के भी विरुद्ध है। गृहस्थावस्था मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत (पंचम) गुणस्थान तक रहती है। प्रथम तीन गुणस्थानों में तो सम्यक्त्व और चारित्र दोनों का अभाव होने से मोक्ष संभव नहीं है । चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र न होने से मोक्ष असम्भव है। तथा पञ्चम गुणस्थान में सकलचारित्र न होने से मोक्ष के लिए अवकाश नहीं है। चारित्र की वृद्धि गुणस्थानक्रम से होती है। क्रमशः ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में वृद्धिंगत होता हुआ बारहवें गुणस्थान में वह पूर्णता को प्राप्त होता है । षट्खंडाग में चारित्र या संयम के पाँच भेद बतलाये गये है : सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । इनमें से सामायिक और छेदोपस्थापना - चारित्र प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में होते हैं। परिहारविशुद्धिचारित्र प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में होता है, सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र, सूक्ष्मसाम्पराय - शुद्धिसंयत - गुणस्थान में और यथाख्यातचारित्र उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक होता है। (ष. खं. / पु. १ / १, १,१२३-१२८)। इनमें से प्रथम चार प्रकार के चारित्र जघन्य और उत्कृष्ट रूप होते हैं। केवल यथाख्यातचारित्र जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित होता है ( ष .खं. / पु.७/२,११, १७४), क्योंकि, वहाँ कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि और हानि के कारणों का अभाव हो जाता है । ( धवला / ष.खं./पु.७ / २,११/१७४/पृ.५६७)। ये चारित्र चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से प्रकट होते हैं । (ष.खं./ पु.७/२,१,४८-५३) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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