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अ०११/प्र०४
षट्खण्डागम/६०३ गाथा में किया है
भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताईं य दोस चइऊणं।
पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए॥ ७३॥ भा.पा.। अनुवाद-"मुनि पहले मिथ्यात्वादि दोषों का परित्याग कर भाव से नग्न होता है, पश्चात् जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्यलिंग धारण करता है (शरीर से नग्न होता है)।"
यतः सम्यक्त्व-वैराग्य-परिणामरूप भावजिनलिंग के बिना नग्नतारूप द्रव्य जिनलिंग प्रकट नहीं होता और नग्नतारूप द्रव्यजिनलिंग के बिना प्रत्याख्यानावरणकषायक्षयोपशमजनित निवृत्तिपरिणामरूप भावजिनलिंग की उपलब्धि नहीं होती, इसलिए उक्त गाथा के टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने लिखा है-"भावलिङ्गेन द्रव्यलिङ्ग, द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यम्। एकान्तमतेन सर्वं नष्टं भवतीति वेदितव्यम्।" (भावपाहुडटीका / गा.७३)।
यथाजात नग्नरूप ही जिनलिंग है, वही भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट मुनिलिंग है। यह समस्त दिगम्बर-श्वेताम्बर आगमों, वैदिक-बौद्ध साहित्य एवं ऋषभादि-वर्धमान पर्यन्त तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाओं से प्रमाणित है। यद्यपि श्री जिनभद्रगणी ने तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य पुरुषों को जिनलिंग धारण करने के अयोग्य बतलाया है और
जारिसयं गुरुलिंगं सीसेण वि तारिसेण होयव्वं। - न हि होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा॥ "जैसा गुरु का लिंग होता है, वैसा ही शिष्य का भी होना चाहिए। बुद्ध का लिंग धारण करनेवाला ही बुद्ध का शिष्य कहलायेगा, श्वेताम्बर या दिगम्बर-लिंग धारण करनेवाला नहीं," इस तर्क का खण्डन करते हुए कहा है कि तीर्थंकर प्रथम संहनन के धारक होते हैं, अतः जिनलिंग (दिगम्बरलिंग) उनके ही योग्य है। शेष पुरुष प्रथम संहनन के धारी नहीं होते, अतः वे जिनलिंग के अधिकारी नहीं हैं। (देखिए , अध्याय २ / प्रकरण ५ / शीर्षक १)।
जिनभद्रगणी जी का यह कथन आचारांगादि श्वेताम्बर-आगमों से ही अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है। कर्मसिद्धान्त की कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता। कर्मसिद्धान्त समस्त जीवों, समस्त क्षेत्रों और समस्त कालों की अपेक्षा समान और निरपवाद है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। तीर्थंकर भी अनादिकाल से तीर्थंकर नहीं थे। वे सामान्य जीवों की तरह ही सामान्य थे। उन्होंने सर्वसाधारण के लिए उपदिष्ट
४६. विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५८५ की हेमचन्द्रसूरिकृतवृत्ति में उद्धृत।
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