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________________ ६०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अनुवाद- 'श्रावक को भी असंयमी माता-पिता, गुरु और राजा की तथा कुलिंगियों और कुदेवों की वन्दना नहीं करनी चाहिए। मुनियों को भी ( शास्त्रोपदेशक) श्रावक की वन्दना अकरणीय है ।" 44 यहाँ लिंगियों का अर्थ बतलाते हुए पं० आशाधर जी उक्त श्लोक की ज्ञानदीपिका पञ्जिका में लिखते हैं- " कुलिङ्गिनः तापसादयः पार्श्वस्थादयश्च ।" अर्थात् तापस आदि एवं पार्श्वस्थ (पासत्थ) आदि मुनि कुलिंगी हैं । अ० ११ / प्र० ४ श्रुतसागर सूरि का कथन है- " एते पञ्चश्रमणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः, तेषां कार्यवशात् किमपि न देयं जिनधर्मोपकारार्थम्।" (भावपाहुड / टीका / गा. १४) । अभिप्राय यह कि "ये पाँच प्रकार के श्रमण जैनधर्म बाहर हैं, अतः वन्दनीय नहीं हैं। जैनधर्म के उपकारार्थ अर्थात् उसे अपवाद से बचाने के लिए इन्हें आहार आदि किसी भी वस्तु का दान नहीं करना चाहिए।" डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने उक्त गाथा के विशेषार्थ में लिखा है - " भ्रष्ट मुनियों को आहार आदि देने तथा उनकी भक्ति - वन्दना आदि करने से जिनधर्म का अपवाद होता है।" इन अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि जैनशासन में सम्यक्त्व - संयमविहीन पुरुषों द्वारा धारण किये गये जैनमुनियों के नग्नवेश को जिनलिंग नहीं, अपितु जिनलिंगाभास या कुलिंग माना गया है और उसे अपूज्य बतलाया गया है। जैसे जल, दुग्ध आदि पवित्र पदार्थ से भरा कलश ही स्पर्शयोग्य होता है, किसी अपवित्र पदार्थ से भरा हुआ नहीं, वैसे ही सम्यक्त्व - संयमसम्पन्न पुरुष की ही नग्नमुद्रा पूज्य होती है, मिथ्यादृष्टि- असंयमी पुरुष की नहीं । Jain Education International ४.१.४. जिनलिंगाभास केवलज्ञानसाधक नहीं - जिनभद्रगणी जी ने निश्शील, मायाचारी पुरुष द्वारा धारण किये गये मुनिलिंग को केवलज्ञान की उत्पत्ति का हेतु कहकर उसे पूज्य बतलाया है। किन्तु उपर्युक्त प्रमाण सिद्ध करते हैं कि उसका मुनिलिंग 'मुनिलिंग' नहीं, अपितु मुनिलिंगाभास है । उसमें तो निश्शील और मायाचारी को शीलवान् और अमायाचारी बनाने की भी योग्यता नहीं है, केवलज्ञान प्रकट करने की योग्यता होने की तो बात ही दूर । अतः वह पूज्य नहीं है। जो मुनिलिंग सम्यक्त्व - वैराग्यरूप स्वभाव से प्रकट होता है और वीतराग - परिणामरूप भावलिंग को जन्म देता है, वही केवलज्ञान का साधक होता है, ऊपर से चिपकाया हुआ नहीं। कोई गर्दभी यदि गाय की खाल ओढ़ ले, तो उसके थनों से गाय का दूध नहीं निकल सकता, वैसे ही कोई मिथ्यादृष्टि - असंयमी मुनिलिंग ओढ़ ले, तो उसमें केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सकता। सम्यक्त्व - वैराग्य - परिणाम से उत्पन्न नाग्न्य ही मुनिलिंग या जिनलिंग कहलाता है, इस तथ्य का निरूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड की निम्नलिखित For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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