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६०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४ ज्ञातव्य-दंसणपाहुड की उपर्युक्त २४ वीं गाथा के सोऽसंजमपडिवण्णो (वह असंयम को प्राप्त अर्थात् असंयमी पुरुष) इस वाक्यांश में, दर्शाये अनुसार अवग्रहचिह्न होना चाहिए। किन्तु प्रायः सभी प्रतियों में वह अनुपलब्ध है अर्थात् सो संजमपडिवण्णो ऐसा पाठ है, जिससे वह संयम को प्राप्त अर्थात् संयमी पुरुष', यह अर्थ संकेतित होता है। परिणामस्वरूप गाथा से सर्वथा उलटा अर्थ निकलता है, जैसे "जो संयमी पुरुष अर्थात् दिगम्बरजैन मुनि ईर्ष्या के कारण सहजोत्पन्न नग्न रूप को अर्थात् दिगम्बर जैन मुनि को देखकर उनकी विनय नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है," यह अर्थ सर्वथा असंगत है, क्योंकि जो स्वयं दिगम्बरजैन मुनि है, वह दिगम्बरजैन मुनि के रूप से न तो ईर्ष्या कर सकता है, न उसका अनादर। अतः टीकाकार श्रुतसागरसूरि (१६वीं शती ई०) ने संयमप्रतिपन्न शब्द को उन भ्रष्ट दिगम्बरजैन मुनियों का सूचक मान लिया, जो १३वीं शताब्दी ई० में आचार्य वसन्तकीर्ति के उपदेश से आहारादि के लिए निकलते समय शरीर को चटाई, टाट आदि से ढंकने लगे थे (दंसणपाहुड टीका/ गा.२४), और शीतकाल में कम्बल ओढ़ने लगे थे। (श्रुतसागरसूरि : तत्त्वार्थवृत्ति ९/ ४७)। इसे श्रुतसागरसूरि ने दिगम्बरजैन मुनियों के लिए अपवादवेष ('संयमिनामित्यपवादवेषः'-दसणपाहुड / टीका / गा.२४) कहकर आगमानुकूल बतलाने का प्रयत्न किया है। इससे इन वस्त्रपरिग्रही भ्रष्ट मुनियों पर 'संयमप्रतिपन्न' (संयमी) विशेषण भी लागू हो जाता है और सच्चे दिगम्बर जैन मुनियों के सहजोत्पन्न नग्नरूप के प्रति उनका ईष्या और अनादरभाव रखना भी उपपन्न हो जाता है। उक्त अपवादवेशधारी भष्ट मुनियों को ही श्रुतसागरसूरि ने संयमप्रतिपन्न (संयमी) कहा है, यह उनके निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है-"संयमप्रतिपन्नो दीक्षां प्राप्तोऽपि---अपवादवेषं धरन्नपि मिथ्यादृष्टितिव्य इत्यर्थः।" (दंसणपाहुड / टीका / गा.२४)।
किन्तु आचार्य श्री कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और उपर्युक्त अपवादवेष के उपदेशक आचार्य वसन्तकीर्ति ईसा की १३वीं शती में। अतः कुन्दकुन्द की गाथा में संयमप्रतिपन्न शब्द उपर्युक्त अपवादवेषधारी जैनश्रमणाभासों के लिए प्रयुक्त माना ही नहीं जा सकता। और जो कुन्दकुन्द यह मानते हैं कि साधु बाल के अग्रभाग के भी बराबर परिग्रह नहीं रखता-"बालग्गकोडिमेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं" (सुत्तापाहुड / गा.१७) तथा वह यथाजतरूपसदृश होता है, हाथ में तिल के तुष के बराबर भी परिग्रह ग्रहण नहीं करता, यदि करता है, तो निगोद में जाता है (सुत्तपाहुड/ गा.१८), ऐसी मान्यतावाले कुन्दकुन्द उक्त अपवादेशधारी श्रमणाभासों को 'सयमप्रतिपन्न' कह ही नहीं सकते। अतः सिद्ध है कि 'दंसणपाहुड' की उक्त २४ वीं गाथा में अवग्रहचिह्नसहित सोऽसंजमपडिवण्णो पाठ ही है, जिससे गाथा का अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्रायानुसार प्रतिपन्न होता है। वही अर्थ ऊपर उद्धृत २४ वीं गाथा
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