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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ५९९ "अतः जैसे जिनेन्द्रों का लेपादिनिर्मित रूप अर्थात् पाषाणादि-प्रतिमा में बनाया गया रूप पूज्य होता है, वैसे ही वर्तमान के शिथिलाचारी मुनियों में दृश्यमान मुनिरूप पूर्वकालीन शुद्धाचारी मुनियों का प्रतिरूप मानकर पूजनीय है।" । ___ दोनों ग्रन्थकारों की ये एक जैसी मान्यताएँ आगमसम्मत नहीं हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'दंसणपाहुड' में मुनिवेश को नहीं, मुनि वेशधारी के संयम को वन्दनीय बतलाया है और मुनिवेशधारी होते हुए भी जो असंयमी है, उसे अवन्दनीय कहा है। देखिए अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि सो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥ २६॥ ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंयुत्तो। को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ॥ २७॥ अनुवाद-"असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए। और जो वस्त्रविहीन होकर भी असंयमी है, वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान होते हैं। इनमें से कोई भी संयमी नहीं है।" (२६)। "न तो देह की वन्दना की जाती है, न कुल की, न जाति की। संयमादिगुणहीन की वन्दना कैसे की जाय? वह न तो श्रमण होता है, न श्रावक।" (२७)। ___ इन वचनों से स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द असंयमी के मुनिवेश को, नग्नदेह को वन्दनीय नहीं मानते। जहाँ उन्होंने मुनिवेश को वन्दनीय कहा है, वहाँ संयमी के ही मुनिवेश को कहा है, असंयमी के नहीं। यथा सहजुप्पण्णं रूवं दटुं जो मण्णए ण मच्छरिओ। सोऽसंजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो॥ २४॥ अमराण वदियाणं रूवं दट्ठण सीलसहियाणं। जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति॥ २५॥ दं.पा. अनुवाद-"जो पुरुष ईर्ष्याभाव के कारण सहजोत्पन्न (दिगम्बरजैन मुनि के यथाजात नग्न) रूप को देखकर उसकी विनय नहीं करता, वह असंयमी पुरुष मिथ्यादृष्टि है। (२४)। शीलसहित मुनियों का वह यथाजातरूप देवों के द्वारा वन्दनीय है। उसे देखकर जो गर्व करते हैं (विनयावनत नहीं होते), वे सम्यक्त्वरहित हैं।" (२५)। इन गाथाओं में कुन्दकुन्द ने शीलसहित मुनियों के ही नग्नवेश को वन्दनीय बतलाया है। इससे स्पष्ट होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द असंयमियों के द्वारा धारण किये गये नग्नवेश को जिनलिंग नहीं, अपितु जिनलिंगाभास मानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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