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५९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०४ जिनभद्रगणी जी का यह समाधान आगमसम्मत नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम।" (१०/१) अर्थात् मोहनीय का क्षय होने के बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है। और तत्त्वार्थसूत्र में इन कर्मों के क्षय के हेतु महाव्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप एवं ध्यान बतलाये गये हैं। (त.सू./७/१, ९/२,३,८,३७, ३८)। अतः इनका समूह ही वह भावलिंग है, जिससे केवलज्ञान का आविर्भाव होता है। यह भावलिंग जिनोपदेश में श्रद्धा न रखनेवाले और उपर्युक्त महाव्रतादि का आचरण न करनेवाले सरजस्क आदि कुलिंगियों में प्रकट नहीं हो सकता। अतः उनको केवलज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। इसलिए उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति मानना आगमविरुद्ध है। षट्खण्डागम में केवलज्ञान को अर्थात् सयोगकेवलि-गुणस्थान को प्राप्त करने के लिए असंयत-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान प्राप्त करने की शर्त शुरू में ही रख दी गयी है। और असंयतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान का अर्थ है जिनवचन में श्रद्धा, जिसका कुलिंगियों अर्थात् परतीर्थिकों में अभाव होता है। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम श्वेताम्बरों और यापनीयों को मान्य परतीर्थिकों की मुक्ति के विरुद्ध है।
४.१.१. जिनलिंग पूज्य, जिनलिंगाभास अपूज्य–तथा जिनभद्रगणी जी की मान्यता है कि जैसे पाषाणादि की प्रतिमा में ज्ञानादिगुण नहीं होते, तथापि अरहन्त का प्रतिरूप होने से पूज्य होती है, वैसे ही कोई शीलरहित मायाचारी पुरुष भी यदि मुनिलिंग धारण किये हो, तो वह मुनिलिंग केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण होने से पूज्य है। अर्थात् मुनिलिंग के सम्पर्क से शीलरहित मायाचारी भी पूज्य है। (देखिये, पा.टि.४५)।
ऐसी मान्यता यशस्तिलकचम्पू के कर्ता दिगम्बर सोमदेव सूरि की भी है। वे लिखते हैं
काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः॥ यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः सम्प्रति संयताः॥
यशस्तिलकचम्पू/ उत्तरखण्ड । आश्वास ८ / पृ. ४०५ । अनुवाद-"इस कलिकाल में चित्त चंचल हो गया है और शरीर अन्नादि का कीड़ा बन गया है। ऐसे समय में भी जिनरूपधारी पुरुष दिखायी देते हैं, यह आश्चर्य की बात है।"
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