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अ०११ / प्र०४
षट्खण्डागम / ५९७ विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने कहा है कि मुनिवेशधारी यदि निश्शील है, तो भी उसे मुनि मानकर जो दान देता है उसे मुनिदान का स्वर्गादिफल प्राप्त होता है। इस पर प्रश्न उठाया गया है कि यदि ऐसा है, तो जो सरजस्क (कापालिक) आदि कुलिंगी हैं, उन्हें भी मुनि समझकर दान देनेवाले को मुनिदान का फल क्यों प्राप्त नहीं होगा? इसके समाधान में कहा गया है कि मुनिलिंग ज्ञानादि गुणों का आश्रय है, इसलिए उसे कोई शीलरहित मायाचारी भी धारण किये हो, तो भी पाषाणादि से निर्मित अरहन्त-प्रतिमा के समान वह मुनिवेश ज्ञानादिगुणों का आश्रय मानकर पूज्य है, किन्तु कुलिंग पूज्य नहीं है, क्योंकि वह ज्ञानादिगुणों का कथंचित् भी आश्रय (उत्पत्ति का हेतु) नहीं है। यहाँ प्रतिप्रश्न किया गया है कि आगम में ऐसा कथन है कि केवलज्ञान तो कुलिंग में वर्तमान अन्यतीर्थिकों को भी होता है, तब वह ज्ञानादिगुणों का आश्रय मानकर पूज्य क्यों नहीं है? इसका समाधान करते हुए जिनभद्रगणी कहते हैं-"कलिंगियों में केवलज्ञान की उत्पत्ति भावलिंग से होती है. कलिंग से नहीं, क्योंकि कुलिंग केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है, अतः वह पूज्य नहीं है।५ किन्तु मुनिलिंग केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, इसलिए वह पूज्य हैं।" ४४. क- "सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहाद्।" आचारांग (प्रथमश्रुतस्कन्ध)/ शीलांकाचार्यवृत्ति, ५ /
२। सूत्र १५०। ख- पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने सरजस्कों को कपाल बगैरह रखनेवाला कहा है, जैसा कि शीलांकाचार्यवृत्ति से ज्ञात होता है। (भगवान् महावीर का अचेलक धर्म/ पृष्ठ १८)।
"नणु मुणिवेसच्छन्ने निस्सीले वि मुणिबुद्धिए देंतो।
पावइ मुणिदाणफलं तह किं न कुलिंगदायावि॥ ३२९१ ॥
"ननु मुनेर्वेषो मुनिवेषस्तेन च्छन्नोऽविज्ञातो य उदायिनृपमारकादिस्तस्मिन् निःशीलेऽपि मुनिबुद्ध्या दानं ददद् दाता मुनिदानफलं स्वर्गादिकं प्राप्नोति, इत्येतद् भवतामपि तावत् सम्मतं, तथा तैनेव प्रकारेण कुत्सितलिङ्गी कुलिङ्गी सरजस्कादिस्तस्मै दाता कलिङ्गदाता, सोऽपि किं न मुनिफलं प्राप्नोति, मुनिबुद्धेस्तस्यापि तत्र सद्भावात्? इति गुरुराह
"जं थाणं मुणिलिंगं गुणाण सुन्नं पि तेण पडिमव्व।
___ पुजं थाणमईए वि कुलिंगं सव्वहाऽजुत्तं ॥ ३२९२ ॥ "यस्माद् मुनिलिङ्गं ज्ञानादिगुणानां स्थानमाश्रयः, तेन तस्मात् कस्यापि मायाविनः सम्बन्धि तत् शून्यमपि गुणैरविज्ञातं पाषाणादिनिर्मितार्हत्प्रतिमावत् स्थानमत्यापि पूज्यम्। कुलिङ्गं सर्वथा पूजयितुं न युक्तं, ज्ञानादिगुणानां सर्वथैवानाश्रयत्वादिति। पुनरपि परः प्राह
- "नणु केवलं कुलिंगे वि होइ तं भावलिंगओ न तओ।
___ मुणिलिंगमंगभावं जाइ जओ तेण तं पुजं ॥ ३२९३ ॥
. ननु केवलं केवलज्ञानं कुलिङ्गेऽपि वर्तमानानामन्यतीर्थिकानां भवतीत्यागमे श्रूयते, तत् किमिति स्थानबुद्ध्या तत् पूज्यं नेष्यते? गुरुराह-तत् केवलज्ञानं भावलिङ्गतो भवति, न पुनस्ततः कुलिङ्गात्, तस्य केवलज्ञानानङ्गत्वात्। मुनिलिङ्गं पुनर्यस्मादङ्गभावं केवलज्ञानस्य कारणतां याति,तेन तस्मात् तत् पूज्यमिति।" विशेषावश्यकभाष्य/मूल एवं हेमचन्द्रसूरिवृत्ति/पृ.६२८ ।
४५.
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