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________________ ५९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ अनुवाद-"जिनों को नमस्कार करता हूँ। अवधि-जिनों (जिनों = मुनियों) को नमस्कार करता हूँ। परमावधि-जिनों को नमस्कार करता हूँ। सर्वावधि-जिनों को नमस्कार करता हूँ। अनन्तावधि-जिनों को नमस्कार करता हूँ। कोष्ठबुद्धिधारक जिनों को नमस्कार करता हूँ। बीजबुद्धिधारक जिनों को नमस्कार करता हूँ। पदानुसारी-ऋद्धि के धारक जिनों को नमस्कार करता हूँ। सम्भिन्नश्रोता जिनों को नमस्कार करता हूँ। ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी जिनों को नमस्कार करता हूँ। विपुलमति जिनों को नमस्कार करता हूँ। दशपूर्वी जिनों को नमस्कार करता हूँ। चौदहपूर्वी जिनों को नमस्कार करता हूँ। अष्टाङ्गमहानिमित्त-कुशल जिनों को नमस्कार करता हूँ। विक्रियाऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। विद्याधर जिनों को नमस्कार करता हूँ। चारणऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। प्रज्ञाश्रवण (प्रज्ञा ही है श्रवण जिनका) जिनों को नमस्कार करता हूँ। आकाशगामी जिनों को नमस्कार करता हूँ। आशीविष जिनों को नमस्कार करता हूँ। दृष्टिविष जिनों को नमस्कार करता हूँ। उग्रतप जिनों को नमस्कार करता हूँ। दीप्ततप-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। तप्ततप- ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। महातपऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। घोरतप-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। घोरपराक्रमऋद्धिधारी-जिनों को नमस्कार करता हूँ। घोरगुण जिनों को नमस्कार करता हूँ। अघोरगुणब्रह्मचारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। आम\षधि-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। खेलौषधि-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। जल्लौषधि-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। विष्ठौषधि-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। सर्वौषधि-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। मनोबल-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। वचनबलऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। कायबल-ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार करता हूँ। क्षीरस्रवी जिनों को नमस्कार करता हूँ। सर्पिस्रवी जिनों को नमस्कार करता हूँ। मधुस्रवी जिनों को नमस्कार करता हूँ। अमृतस्रवी जिनों को नमस्कार करता हूँ। अक्षीणमहानस जिनों को नमस्कार करता हूँ। लोक के समस्त सिद्धायतनों (अकृत्रिम चैत्यालयों, तीर्थों, मन्दिरों) को नमस्कार करता हूँ। वर्धमान बुद्ध (केवलज्ञानी) ऋषि को नमस्कार करता हूँ।" इन सूत्रों में केवल जिनों (प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती मुनियों), जिनसिद्धायतनों तथा जिनेन्द्र भगवान् महावीर को मंगलहेतु नमस्कार किया गया है, किसी अन्य सम्प्रदाय के साधुओं, या देवों को नहीं। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम के कर्ताओं की दृष्टि में अन्य सम्प्रदाय के साधु जिन (प्रमत्तसंयतादि-गुणस्थानवर्ती) नहीं हैं, अत एव मोक्षमार्गी एवं मंगलकारी न होने से वन्दनीय नहीं हैं। इस प्रकार ये सूत्र भी परतीर्थानुयायियों की मुक्ति के विरुद्ध हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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