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________________ अ०११ / प्र० ४ षट्खण्डागम / ५९५ 'बन्धस्वामित्वविचय' के प्रकरण में बतलाया गया है कि जिन जीवों में तीर्थंकर प्रकृति का उदय होता है, वे उसके उदय से देवों, असुरों और मनुष्यों के द्वारा अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, नेता और धर्मतीर्थ के कर्त्ता, जिन व केवली होते हैं "जस्स इणं तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदएण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा, पूजणिज्जा, वंदणिज्जा, णमंसणिज्जा, णेदारा धम्म- तित्थयरा, जिणा, केवलिणो हवंति।" (ष. खं. / पु.८ / ३,४२)। यह सूत्र इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि जिस जीव में तीर्थंकरप्रकृति का उदय होता है, वही जीव तीर्थंकर बन सकता है। उसके अतिरिक्त और कोई जीव तीर्थंकर अर्थात् धर्मतीर्थ का प्रवर्तक नहीं हो सकता, इसलिए जो परतीर्थ के अनुगामी हैं, वे अतीर्थंकरप्रणीत मार्ग (मोक्ष के अवास्तविक मार्ग) का अनुगमन करने से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते । तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध भी उसी जीव को होता है, जो जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त सोलह कारण - भावनाओं का अभ्यास करता है । अतः परतीर्थानुगामी तीर्थंकरप्रकृति का भी बन्ध करने में असमर्थ है। इस तरह षट्खण्डागम का यह सूत्र भी मिथ्यादृष्टि या परतीर्थानुगामी की मुक्ति के विरुद्ध है । षट्खण्डागम के कर्त्ताओं ने ग्रन्थ के आदि में मंगल के लिए अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पञ्चपरमेष्ठियों को ही नमस्कार किया है, किसी अन्य देव को नहीं। इसी प्रयोजन से ग्रन्थ के मध्य में भी जिनों और जिनानुयायी ऋषियों की ही वन्दना की गयी है । यथा " णमो जिणाणं । णमो ओहिजिणाणं । णमो परमोहिजिणाणं । णमो सव्वोहिजिणाणं । णमो अणंतोहिजिणाणं । णमो कोट्ठबुद्धीणं । णमो बीजबुद्धीणं । णमो पदाणुसारीणं । णमो संभिण्णसोदाराणं । णमो उजुमदीणं । णमो विउलमदीणं । णमो दसपुव्वियाणं । णमो चोइसपुव्वियाणं । णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं । णमो विउव्वणपत्ताणं । णमो विज्जाहराणं । णमो चारणाणं । णमो पण्णसमणाणं । णमो आगासगामीणं । णमो आसीविसाणं । णमो दिट्ठिविसाणं । णमो उग्गतवाणं । णमो दित्ततवाणं । णमो तत्ततवाणं । णमो महातवाणं । णमो घोरतवाणं । णमो घोरपरक्कमाणं । णमो घोरगुणाणं । मोऽघोरगुणबंभचारीणं । णमो आमोसहिपत्ताणं । णमो खेलोसहिपत्ताणं । णमो जल्लोसहिपत्ताणं । णमो विट्ठोसहिपत्ताणं । णमो सव्वोसहिपत्ताणं । णमो मणबलीणं । णमो वचिबलीणं । णमो कायबलीणं । णमो खीरसवीणं । णमो सप्पिसवीणं । णमो महुसवीणं । णमो अमडसवीणं । णमो अक्खीणमहाणसाणं । णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं । णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स ।" (ष.खं. / पु. ९/४,१,१-४४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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