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५९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०४ साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणदाए साहूणं वेजावच्चजोगजुत्तदाए, अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।" (ष.खं. / पु.८ / ३,४१)।
अनुवाद-"दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शील-व्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षण-लवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं की प्रासुकपरित्यागता, साधुओं की समाधिसन्धारणता, साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर-नाम-गोत्रकर्म को बाँधते हैं।"
__ आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की दृष्टि में धर्म का यही स्वरूप है। इस जिनोपदिष्ट धर्म के श्रवण से ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। जैनेतरलिंगधारियों की जिनोपदिष्ट धर्म में श्रद्धा नहीं होती, अतः उसका श्रवण न करने से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, अत एव उनका मुक्त होना असम्भव है।
तथा पूर्वजन्म की वही स्मृतियाँ प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का निमित्त बनती हैं, जिनसे जिनोपदिष्ट धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिन परलिंगियों को इस प्रकार का जातिस्मरण नहीं होता, वे परलिंगी ही बने रहते हैं, अत एव सम्यक्त्व के अभाव में उनके लिए मुक्ति के द्वार नहीं खुलते।
इस तरह जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन को प्रथमोपशमसम्यक्त्व का बाह्यनिमित्त प्रतिपादित करनेवाला उपर्युक्त सूत्र जैनेतर-लिंगधारियों की मुक्ति का निषेधक है।
षट्खण्डागम में कहा गया है कि जीव दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा का प्रारंभ अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में स्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ, जिस काल में जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं वहाँ, उस काल में (उनके पादमूल में) करता है।०३ चूंकि परलिंगधारी मनुष्य की जिन, केवली या तीर्थंकर में श्रद्धा नहीं होती, अतः वह उनके पादमूल का आश्रय न लेने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता, अत एव षटखण्डागम का यह सूत्र भी परतीर्थानुगामी की मुक्ति के विरुद्ध है।
४३. "उवसामणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले? दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदुमाढवेंतो कम्हि
आढवेदि, अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णारसकम्मभूमीसु जम्हि जिणा, केवली, तित्थयरा तम्हि आढवेदि।" षट्खण्डागम/ पु.६ / १,९-८,१०-११ ।
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