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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ५९३ __ अनुवाद-"नैगम, व्यवहार और संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणकर्म का बन्ध प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन प्रत्ययों से होता है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम-प्रत्ययों से भी होता है। निदान, अभ्याख्यान (दूसरों में अविद्यमान दोषों का कथन), कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि (क्रोधादिपरिणामों की उत्पत्ति में निमित्तभूत बाह्य पदार्थ), निकृति (धोखा देना), मान (प्रस्थ आदि माप, क्योंकि ये कूट-व्यवहार के हेतु हैं), माय (मेय = मापे जाने योग्य गेहूँ आदि पदार्थ, क्योंकि ये मापनेवाले के असत्य-व्यवहार के हेतु हैं), मोष (चोरी), मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, तथा प्रयोग (योग = मनवचनकायव्यापार), इन प्रत्ययों से भी ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है। शेष सात कर्मों का भी बन्ध इन्हीं प्रत्ययों से होता है।" , संयम या चारित्ररूप धर्म के पाँच भेद षट्खण्डागम में इस प्रकार बतलाये गये हैं-सामायिकशुद्धिसंयम, छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयम, परिहारशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयम और यथाख्यातविहार-शुद्धिसंयम।२ निम्नलिखित सूत्र में बारह प्रकार के आभ्यन्तर और बाह्य तपों का निर्देश किया गया है-"तं सब्भंतरबाहिरं बारसविहं तं सव्वं तवोकम्मं णाम।" (ष.खं/ पु.१३ /५, ४,२६)। सामायिक के समय करणीय क्रियाओं को क्रियाकर्म कहते हैं। उनका वर्णन करनेवाला सूत्र यह है "तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम।" (ष.खं./ पु.१३ / ५,४,२८)। अनुवाद-"आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार वन्दना करना, तीन बार अवनति करना, चार बार सिर नवाना और बारह आवर्त करना, यह सब क्रियाकर्म जो धार्मिक क्रियाएँ तीर्थंकरप्रकृति के भी बन्ध में निमित्त होती हैं, उनका वर्णन निम्नलिखित सूत्रों में हैं "दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधा तवे, ४२. " संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा संजदासजदा अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा। परिहारविसुद्धिसंजदा, सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अत्थि जीवा तिसरीरा।" षट्खण्डागम / पु. १४ / ५, ६, १५६-१५७। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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