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५९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४
एवं समभाव की उत्पत्ति असंभव है । कषायोदय का अभाव एवं पूर्ण वीतरागता का सद्भाव केवल उपशान्तकषाय- वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषाय- वीतराग- छद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होता है। (ष. खं. / पु. १ / १, १ / ११४)। इससे यह भी संकेतित होता है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पूर्णता उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ तथा क्षीणकषाय- वीतराग - छद्मस्थ गुणस्थानों में होती है, उसके पूर्व नहीं ।
सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये नाम सूचित करते हैं कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में केवल चार घाती कर्मों का क्षय हुआ होता है, वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्मों की सत्ता रहती है। अतः जब इन गुणस्थानों में सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो पाता, तब मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में कैसे प्राप्त हो सकता है?
सम्यक्त्वोत्पत्ति के बहिरंग कारणों पर प्रकाश डालते हुए षट्खंडागम में जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का बाह्यं हेतु कहा गया है—"तीहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति, केई जाइस्सरा, केई सोऊण, केई जिणबिंबं दड्रूण।” (ष.खं./पु.६ / १, ९–९, ३०) ।
जिनबिम्बदर्शन को सम्यक्त्वोत्पत्ति का हेतु कहे जाने से स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव में भक्ति रखनेवाले को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है, जैनेतर देवों में भक्ति रखनेवाले को नहीं। इससे परलिंगी (परमतावलम्बी) की मुक्ति का निषेध किया गया है । जिस धर्म के श्रवण से सम्यक्त्व की उत्पत्ति बतलाई गई है, उस धर्म का स्वरूप षट्खण्डागमकारों ने सम्यग्दृष्ट्यादि गुणस्थानों, पञ्चमहाव्रतों, रात्रिभोजनत्याग, पाँच प्रकार के चारित्र, बारह तपों और तीर्थंकर - प्रकृति-बंधक सोलह कारण - भावनाओं के रूप में प्रतिपादित किया है। सम्यक्त्व, संयतासंयतत्व (पाँच पापों से एकदेशनिवृत्ति) प्रमत्तसंयतत्व (पाँच पापों से सर्वथा निवृत्ति), अप्रमत्तसंयतत्व आदि गुणस्थान सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप धर्म की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । प्राणातिपात ( हिंसा) आदि पापों से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध होता है, अतः उनका त्याग धर्म है, यह निम्नलिखित सूत्रों में प्रतिपादित किया गया है—
“णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा पाणादिवादपच्चए। मुसावादपच्चए। अदत्तादाणपच्चए। मेहुणपच्चए । परिग्गहपच्चए । रादिभोयणपच्चए। एवं कोहमाणमाया-लोहरागदोसमोहपेम्मपच्चए । णिदाणपच्चए। अब्भक्खाण- कलह-पेसुण्णरइ-अरइ-उवहि-णियदि - माण - माय - मोस - मिच्छणाण-मिच्छदंसण-पओअ - पच्चए। एवं सत्तण्णं कम्माणं ।" (ष. खं. / पु. १२ / ४,२,८,२-११)।
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