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अ०११/प्र.४
षट्खण्डागम / ५८९ गुणस्थानसिद्धान्त की उपलब्धि न होना सुनिश्चित है। इसकी पुष्टि इन तथ्यों से होती है कि यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बरों की तरह गृहस्थों और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति मानता था और गुणस्थानसिद्धान्त इन मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध है। आइये उन तथ्यों पर दृष्टि डालें। ४.१. मिथ्यादृष्टि (परलिंगी) की मुक्ति के विरुद्ध
श्वेताम्बरग्रन्थों के अनुसार मिथ्यादृष्टि भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में बोटिकों अर्थात् दिगम्बरों को मिथ्यादृष्टि कहा है।२६ और आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में हरिभद्रसूरि ने मिथ्यादृष्टि उसे कहा है जो जिनवचन को प्रमाण न माने।३७ इस प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों की दृष्टि में श्वेताम्बरों के अतिरिक्त अन्य सभी भिन्नमतावलम्बी मिथ्यादृष्टि हैं। बोटिकों को अर्थात् दिगम्बरों को तो स्पष्ट शब्दों में मिथ्यादृष्टि कहा गया है, बौद्ध भी उनके मतानुसार मिथ्यादृष्टि की परिभाषा में आते हैं, क्योंकि वे इस जिनवचन को नहीं मानते कि आत्मा शाश्वत है और मुक्त होने पर नष्ट नहीं होता, अपितु लोकाग्र में जाकर स्थित हो जाता है तथा सदा स्वात्मोत्थ सुख का अनुभव करता रहता है। इसके विपरीत वे यह मानते हैं कि जैसे दीपक बुझने पर न पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में, न किसी विदिशा में, अपितु तेल समाप्त हो जाने के कारण उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, वैसे ही निर्वाण को प्राप्त आत्मा न पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में, न विदिशा में, प्रत्युत क्लेशों के विनष्ट हो जाने से, उसकी सत्ता ही लुप्त हो जाती है।८ इसी प्रकार वैदिक आदि अन्य मतावलम्बी भी जिनवचन को प्रमाण नहीं मानते, वे वेदादि को प्रमाण मानते हैं, अतः वे भी उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार मिथ्यादृष्टि हैं। ये सभी मिथ्यादृष्टि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा श्वेताम्बरग्रन्थों ३६. क-"भिन्न-मय-लिंग-चरिया मिच्छद्दिट्ठि त्ति बोडियाऽभिमया॥ २६२०॥" विशेषावश्यकभाष्य। ख-"मतं च लिङ्गं च भिक्षाग्रहणादिविषया चर्या च मतलिङ्गचर्याः, भिन्ना मतलिङ्गचर्या
येषां ते तथाभूताः सन्तो बोटिका मिथ्यादृष्टयोऽभिभताः, भिन्नमतत्वादिकारणात् ते नियुक्तिकृता मिथ्यादृष्टित्वेन निर्दिष्टा इत्यर्थः।" हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यक
भाष्य/ गा.२६२०। ३७. "निह्नव इति कोऽर्थः? स्वप्रपञ्चतस्तीर्थकरभाषितं निहतेऽर्थं पचाद्यचि ति निह्नवो मिथ्यादृष्टिः। उक्तं च- -
सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः, सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम्॥
. हारिभद्रीयवृत्ति / आवश्यकनियुक्ति / गा.७७८ । ३८. दीपो यथा. निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं।
दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। १६ / २८ ॥
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