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________________ ५९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ में कहा गया है। आचार्य रत्नशेखरसूरि-कृत सम्बोधसत्तरी के निम्नलिखित वचन इसमें प्रमाण हैं सेयंबरो वा आसांबरो य बुद्धो वा तहैव अन्नो वा। समभाव भावियप्पा लहइ मोक्खं ण संदेहो॥ ३९ अनुवाद-"कोई श्वेताम्बर हो या दिगम्बर (आशाम्बर), बौद्ध हो या अन्यमतावलम्बी, समभाव धारण कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं है।" हरिभद्रसूरि ने भी उपदेशतरंगिणी में ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव॥३० उत्तराध्ययनसूत्र में स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक तथा स्वलिंगधारी (जिनलिंगधारी), अन्यलिंगधारी (तापस, परिव्राजक आदि) एवं गृहिलिंगधारी (गृहस्थ) सभी को मोक्ष की प्राप्ति बतलायी गयी है इत्थी पुरिस सिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य॥ ३६/९९ ॥ सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने के स्पष्ट उल्लेख हैं। ऋषिभाषित में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमणपरम्पराओं एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम्॥ १६/२९॥ महाकवि अश्वघोषकृत 'सौन्दरनन्द' महाकाव्य। ३९. डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृष्ठ ३६२ पर उद्धृत। ४०. वही / पृ.३६२ पर उद्धृत। ४१. आहंसु महापुरिसा पुव्विं तत्तपोधणा। उदएण सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति॥ अभुंजिया नमि विदेही, रामपुत्ते य भुंजिया। बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी॥ असिते देवले चेव दीवायण महारिसी। पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ॥ एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह सम्मता। भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सअं ॥ सूत्रकृतांग १/३/४/१-४ (जै.ध.या.स/ पृ.४११)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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