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________________ ५८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ सत्य नहीं है। अतः मान्य विद्वान् का यह गुणस्थान-विकासवाद सर्वथा कपोलकल्पित अत एव मिथ्या है, यह दशम अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। वस्तुतः दिगम्बरग्रन्थों में गुणस्थानसिद्धान्त की उपलब्धि और श्वेताम्बरग्रन्थों में अनु-पलब्धि सैद्धान्तिक विकास और अविकास का प्रमाण नहीं है, अपितु परम्परागत सिद्धान्तों के परित्याग और अपरित्याग का प्रमाण है। जैसे देहसुख के लिए परम्परागत अचेलत्व का त्याग कर दिया गया, फिर सचेलत्व में अचेलत्व घटाने के लिए अचेलत्व की मौलिक परिभाषा को तिलांजलि दे दी गयी और परिग्रह की मूलपरिभाषा भी त्याग दी गयी, वैसे ही सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति तथा विशेषरूप से गृहस्थमुक्ति और अन्यतैर्थिकमुक्ति की मान्यता के विरुद्ध होने से जिनोपदिष्ट गुणस्थानसिद्धान्त का भी परित्याग कर दिया गया। श्वेताम्बर-आगमग्रन्थों में इस सिद्धान्त की अनुपलब्धि का यही कारण है। चूँकि गुणस्थान-सिद्धान्त जिनोपदिष्ट है, अतः इसके विकास की परिकल्पना कर आचार्यरचित ग्रन्थों की पूर्वापरता का निर्णय करना औचित्यपूर्ण नहीं है। श्वेताम्बरपरम्परा का जीवसमास नामक ग्रन्थ स्वयं कहता है कि चौबीस जिन चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं दस चोइस य जिणवरे चोइस गुणजाणए नमंसिता। चोइस जीवसमासे समासओऽणुक्कमिस्सामि॥ १॥३४ . इसका फलितार्थ यह है कि चौदह गुणस्थानों का उपदेश तीर्थंकरों से ही प्राप्त हुआ था, बाद में परिकल्पित या विकसित नहीं किया गया। यद्यपि यह ग्रन्थ छठी शताब्दी ई०३५ का माना गया है और डॉ० सागरमल जी के कथनानुसार चौदह गुणस्थानों का उल्लेख प्रक्षेप द्वारा ही श्वेताम्बरग्रन्थों में आया है, तथापि उपर्युक्त गाथा में गुणस्थानों का उपदेश तीर्थंकरों से ही प्राप्त माना गया है, विकसित नहीं। गुणस्थान-सिद्धान्त यापनीय-सिद्धान्तों के विरुद्ध यतः श्वेताम्बर-आगमों में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन गुणस्थानसिद्धान्त पर आश्रित नहीं है, न ही रत्नत्रय के अभाव, सद्भाव, क्रमिक उत्कर्ष और पूर्णता का निर्णय गुणस्थानसिद्धान्त के आधार पर किया गया है, अतः श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानने वाले यापनीयों के मत में भी ऐसा ही होना अनिवार्य है। अतः उनके ग्रन्थों में भी ३४. जीवसमास / अनुवादिका : साध्वी विद्युत्प्रभाश्री। ३५. वही/ भूमिका : डॉ. सागरमल जी / पृ. ।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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