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________________ अ०११ / प्र० ४ षट्खण्डागम / ५८७ और त्रुटिपूर्णता का अनुभव हुआ है। किन्तु उन्होंने इस यथार्थ को स्वीकार न कर श्वेताम्बर - आगमों में गुणस्थानव्यवस्था के अभाव का औचित्य सिद्ध करने के लिए यह मिथ्याहेतु गढ़ डाला कि गुणस्थान- नियम सर्वज्ञोपदिष्ट नहीं है, अपितु बाद के आचार्यों द्वारा विकसित किया गया है । और इस विकासवादी मनगढ़त हेतु के द्वारा उन्होंने यह भ्रम उत्पन्न करने का भी लाभ उठाया है कि जिन ग्रन्थों में गुणस्थानसिद्धान्त का अभाव है, वे प्राचीन हैं और जिनमें सद्भाव है, वे बहुत बाद के हैं । किन्तु डॉक्टर सा० ने गुणस्थानसिद्धान्त को विकसित घोषित कर अनजाने में जैनधर्म और दर्शन की जड़ पर कुल्हाड़ी पटकने का उपक्रम किया है। उनकी परिकल्पना से सम्पूर्ण जैनदर्शन और धर्म सर्वज्ञोपदिष्ट सिद्ध न होकर छद्मस्थों द्वारा कल्पित किया गया सिद्ध होता है। क्योंकि जैनधर्म और दर्शन की आधारशिला कर्मसिद्धान्त है और कर्मसिद्धान्त की वैज्ञानिकता या युक्तिमत्ता - गुणस्थाननियम पर आश्रित है । गुणस्थानसिद्धान्त का मर्म है आत्मपरिणामों और पुद्गलकर्मों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की स्वीकृति । यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि अनादिबद्ध पुद्गलकर्मों के निमित्त से आत्मा के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-रु - रूप परिणाम होते हैं। उनसे पुद्गलकर्मों का आस्रवबन्ध होता है तथा उनके अभाव से आत्मा के परिणाम निर्मल होते हैं, जिनसे पुद्गलकर्मों का संवर, निर्जरा और मोक्ष होता है। इस प्रकार के आत्मा के परिणाम सामान्यतः चौदह प्रकार के होते हैं : मिथ्यात्वरूप, सासादनसम्यक्त्वरूप, सम्यग्मिथ्यात्वरूप, असंयतसम्यक्त्वरूप, संयमासंयमरूप, प्रमत्तसंयमरूप, अप्रमत्तसंयमरूप इत्यादि । इन आत्मपरिणामों को गुणस्थान कहते हैं। इनमें से भिन्न-भिन्न आत्म- परिणाम या गुणस्थान के द्वारा भिन्न-भिन्न कर्मों का आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष होता है । ३३ प्रथम तीन परिणाम या गुण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय के अभाव के सूचक हैं तथा बाद के ग्यारह परिणाम रत्नत्रय के सद्भाव और उत्तरोत्तर उत्कर्ष के सूचक । अतः गुणस्थान-परम्परा रत्नत्रय के अभाव - सद्भाव और उत्तरोत्तर उत्कर्ष तथा पूर्णता का मानदण्ड है तथा कर्मसिद्धान्त की आधारशिला है, अतः गुणस्थाननियम के बिना कर्मसिद्धान्त का औचित्य सिद्ध नहीं होता, बन्धमोक्ष की सम्पूर्ण प्रणाली कारणकार्यसम्बन्ध से रहित, स्वच्छन्द और अयुक्तिसंगत हो जाती है । कर्मसिद्धान्त और रत्नत्रय ये दो ही जैन दर्शन और धर्म की बुनियाद हैं, अतः गुणस्थाननियम को सर्वज्ञोपदिष्ट न मानकर आरातीय आचार्यों द्वारा विकसित घोषित कर देने से यह घोषित होता है कि सम्पूर्ण जैन दर्शन और धर्म परिकल्पित है, सर्वज्ञोपदिष्ट, शाश्वत और सार्वभौमिक ३३. “तस्य संवरस्य विभावनार्थं गुणस्थानविभागवचनं क्रियते ।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ९/१/१०/ पृ. ५८८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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