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५८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०४
से क्या तात्पर्य है, यह पुनः स्मरण कर लेना आवश्यक है। आस्रव-बन्ध के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, उनके सद्भाव और अभाव से युक्त आत्मपरिणामों का नाम गुणस्थान है। दूसरे शब्दों में, कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से प्रकट आत्मा के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक परिणाम गुणस्थान कहलाते हैं। ये मोक्ष के सोपान हैं। इनकी संख्या चौदह है, जिनके नाम इस प्रकार हैं : मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
इनमें उत्तरोत्तर भिन्न-भिन्न कर्मप्रकृतियों के उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षय, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की तथा भिन्न-भिन्न सम्यग्दर्शनों (प्रथमोपशम, क्षायोपशमिक, द्वितीयोपशम और क्षायिक), चारित्रभेदों, ध्यानभेदों एवं परीषहभेदों की उत्पत्ति की योग्यता होती है। अतः गुणस्थानों पर क्रमशः आरोहण करने से ही मोक्ष प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इस नियम को गुणस्थानसिद्धान्त कहते हैं। .
इस प्रकार दिगम्बरग्रन्थों में बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थानसिद्धान्त पर आश्रित बतलायी गयी है। गुणस्थानसिद्धान्त के ज्ञान के बिना बन्ध के हेतुभूत
और मोक्ष के साधनभूत विविध परिणामों और उनके अभिव्यक्तिक्रम का बोध सम्भव नहीं है, न ही यह ज्ञान संभव है कि किस आत्मपरिणाम के साथ किन कर्मप्रकृतियों के आस्रव, बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष का सम्बन्ध है। संसार और मोक्ष की सम्पूर्ण प्रणाली गुणस्थानों की कील पर घूमती है। अतः गुणस्थान-नियम का स्पष्टीकरण ही वस्तुतः बन्धमार्ग और मोक्षमार्ग का स्पष्टीकरण है।
__श्वेताम्बर-आम्नाय के प्राचीनसाहित्य में गुणस्थानसिद्धान्त अनुपलब्ध है। परवर्ती ग्रन्थों में उसका उल्लेख है, किन्तु श्वेताम्बर विद्वानों ने उसे प्रक्षिप्त माना है। अर्थात् वह दिगम्बरग्रन्थों से ग्रहणकर समाविष्ट किया गया है। यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानता था। अत: यह गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयमत में भी अनुपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में इसके उपलब्ध न होने की बात डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार की है। वे जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ में लिखते हैं-"गुणस्थान का यह सिद्धान्त समवायांग के १४ जीवसमासों के उल्लेखों के अतिरिक्त श्वेताम्बरमान्य आगमसाहित्य में सर्वथा अनुपस्थित है, यहाँ भी उसे श्वेताम्बर विद्वानों ने प्रक्षिप्त ही माना है।" (पृ.२४८)।
अपनी बात को पुष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं-"जैसा कि हमने निर्देश किया है, श्वेताम्बरमान्य समवायांग में १४ जीवठाण के रूप में १४ गुणस्थानों का
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