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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ५८३ किन्तु ९३ वें सूत्र में अपर्याप्तक मनुष्यिनी के सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि आदि होने का निषेध किया गया है। इससे ज्ञापित होता है कि जो असंयतसम्यग्दृष्टि देव, नारकी या मनुष्य ( बद्धायुष्क ) सम्यग्दर्शनसहित मनुष्यगति में जाता है, उसके, विग्रहगति में मनुष्यगतिनामकर्म के साथ स्त्रीवेद या नपुंसकवेद-नोकषायकर्म का उदय नहीं होता, केवल पुरुषवेदनोकषायकर्म उदय में आता है-"देव-णेरइअ मणुस्सअसंजदसम्माइट्ठिणो जदि मणुस्सेसु उप्पजंति तो णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पजंति ण अण्णवेदेसु।" (धवला/ष.ख/पु.२/१,१/पृ.५१२-५१३)। अतः कोई भी असंयतसम्यग्दृष्टि देव, नारकी या मनुष्य मनुष्यिनी नहीं बन पाता। इसलिए अपर्याप्तक अवस्था में मनुष्यिनी के असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान नहीं होते। ___ इस प्रकार यह सूत्र सम्यग्दृष्टि जीवों के स्त्रीपर्याय में उत्पन्न होने का निषेधक है, जिसका फलितार्थ यह है कि यह मल्लितीर्थंकर के स्त्री होने को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि श्वेताम्बरीय ज्ञातृधर्मकथांग के अनुसार उन्होंने उपान्त्य पूर्वभव में राजकुमार महाबल के रूप में सम्यग्दर्शनपूर्वक तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध किया था और अन्त्य पूर्वभव में जयन्तस्वर्ग में देव के रूप में उत्पन्न होकर उत्तरभव में सम्यग्दर्शनसहित ही मनुष्यभव प्राप्त किया था। अतः उपर्युक्त सूत्र के अनुसार उनका मनुष्यभव में स्त्री बनना नियमतः असंभव था, पुरुष होना ही अनिवार्य था। इस तरह स्पष्ट है कि सत्प्ररूपणा का ९३वाँ सूत्र मल्लितीर्थंकर के स्त्री होने का निषेधक है। अतः इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वह द्रव्यस्त्री में संयतादि गुणस्थानों का भी निषेधक है। यह षट्खण्डागम के श्वेताम्बर या यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होने के विरुद्ध और दिगम्बरग्रन्थ होने के पक्ष में बलिष्ठ प्रमाण है। उक्त सूत्र में संयतादि गुणस्थानों का कथन भावस्त्रियों में. (ऐसे मनुष्यों में जो शरीर से तो पुरुष होते हैं, किन्तु भाव से स्त्री) किया गया है, द्रव्यस्त्रियों में नहीं, इसका स्पष्टीकरण षष्ठ प्रकरण में द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम में गुणस्थानाश्रित बन्धमोक्षव्यवस्था षट्खण्डागम में गुणस्थान-सिद्धान्त की उपलब्धि इसके यापनीयग्रन्थ होने के विरुद्ध दूसरा बड़ा प्रमाण है। यह दिगम्बरमत में ही सुरक्षित रह पाया है। इस सिद्धान्त २,१२१)। अनुवाद-"जीव नपुंसकवेदी कितने काल तक रहते हैं? जघन्य से एक समय तक।" "क्योंकि नपुंसकवेद के उदय के साथ उपशमश्रेणी पर चढ़कर, फिर उतरकर, सवेद (नपुंसकवेद से युक्त) होकर और द्वितीय समय में मरकर पुरुषवेद को प्राप्त हुए जीव के नपुंसकवेद का जघन्य से एक समय काल देखा जाता है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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