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५८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०४ निष्पन्न हो जाने पर पर्याप्त कहलाने लगता है।३० तात्पर्य यह कि विग्रहगति से लेकर शरीरपर्याप्ति के निष्पन्न होने के पूर्व तक की अवस्था अपर्याप्तक अवस्था है।३१
उपर्युक्त ९२ वें सूत्र में कहा गया है कि मनुष्यिनियाँ अपर्याप्तक अवस्था में भी सासादनसम्यग्दृष्टि हो सकती हैं। इससे सूचित होता है कि जीव की मनुष्यिनी संज्ञा विग्रहगति में ही मनुष्यगतिनामकर्म एवं स्त्रीवेदनोकषायकर्म के उदय से निर्धारित हो जाती है। अतः 'मनुष्यिनी' संज्ञा का आधार स्त्रीवेदनोकषायकर्म का उदय भी है और स्त्रीवेदनामकर्म का उदय भी।
तथा "अपर्याप्तक अवस्था में मनुष्यनी सासादनसम्यग्दृष्टि हो सकती है" सूत्र के इस कथन से स्पष्ट होता है कि पूर्वभव का सासादन-सम्यग्दृष्टि जीव मरकर सासादन-सम्यग्दर्शन-सहित उत्तरभव धारण कर सकता है और विग्रहगति में उसके मनुष्यगतिनामकर्म तथा स्त्रीवेदनोकषायकर्म का उदय हो सकता है।३२ इसी कारण अपर्याप्तक अवस्था में मनुष्यिनी का सासादनसम्यग्दृष्टि होना संभव है।
शरीरपर्याप्तिः। ---योग्य-देशस्थितरूपादिविशिष्टार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तेनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः। --- उच्छ्वासनिस्सारणशक्तेर्निष्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरानापानपर्याप्तिः। ---भाषावर्गणायाः स्कान्धानुचतुर्विधभाषाकारेण परिणमनशक्तेनिमित्तनोकर्मपुद्गलप्रचयावाप्तिर्भाषापर्याप्तिः। --- मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयः अनुभूतार्थस्मरण
शक्तिनिमित्तः मनःपर्याप्तिः।" (धवला / ष.ख. / पु.१ / १, १, ३४ / पृ.२५७ -२५८ । ३०. क- पज्जत्तस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि।
जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥ १२१ ॥ गोम्मटसार-जीवकाण्ड। ख- "स्यादपर्याप्ताः शरीरानिष्पत्त्यपेक्षया इति वक्तव्यम्।" धवला/ष.खं./पु.१/१,१,९२ । ३१. विग्रहगतिवाले जीव का अपर्याप्तक में ही अन्तर्भाव किया गया है, इसका स्पष्टीकरण
वीरसेनस्वामी ने इस प्रकार किया है-"अथ स्याद् विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तदा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पत्तेरभावात्। न अपर्याप्तास्ते, आरम्भात्प्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात्। न चानारम्भकस्य स व्यपदेशः, अतिप्रसङ्गात्। ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तरं वक्तव्यमिति? नैष दोषः, तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात्। नातिप्रसङ्गोऽपि, कार्मणशरीरस्थितप्राणिनामिवापर्याप्तकैः सह सामर्थ्याभावोपपादैकान्तानुवृद्धियोगैर्गत्यायुःप्रथमद्वित्रिसमयवर्तनेन च शेषप्राणिनां प्रत्यासत्तेरभावात् । ततोऽशेषसंसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम्।" धवला/
षट्खण्डागम / पु.१ / १, १,९४।। ३२. उत्तरभव के प्रथमसमय (विग्रहगति) में वेदपरिवर्तन का प्रमाण षट्खण्डागम के निम्नलिखित
वचनों में उपलब्ध होता है-"णवंसयवेदा केवचिरं कालादो होंति? जहण्णेण एयसमओ।" ष.ख/पु.७/२,२,१२०-१२१)। णqसयवेदोदएण उवसमसेडिं चडिय ओदरिय सवेदो होदूण विदियसमए कालं करिय पुरिसवेदं गदस्स एगसमयदंसणादो।" (धवला / ष.खं./ पु.७ / २,
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